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चंद्र ग्रहण, श्रावणी पर्व ओर रक्षाबंधन 2017

इस बार वर्ष 2017  में श्रावण शुक्ल पूर्णिमा रक्षा बंधन पर पड़ेगा चंद्र ग्रहण का साया -अंजु आनंद ।
7 अगस्त 2017 सोमवार को रक्षाबंधन पर खंड ग्रास चंद्र ग्रहण घटित होगा जो पूरे भारत वर्ष में दृश्य होगा । रक्षाबंधन पर चंद्रग्रहण और भद्रा का योग बनने के कारण लोगों में यह जानने की उत्सुकता है कि श्रावणी उपाकर्म कब किया जाए और राखी कब बांधी जाए । 

ग्रहण के स्पर्शादि काल चंडीगढ़ के समयानुसार: 


चंद्र ग्रहण का स्पर्श - रात्रि 10 बजकर 52 मिनट 7 अगस्त 2017
मध्य काल - रात्रि 11 बजकर 50 मिनट 
मोक्ष मध्यरात्रि में 00 बजकर 48 मिनट 
पर्व काल  1 घंटा 55 मिनट
परमग्रासमान 0.25  (25%)

इस ग्रहण में चन्द्रबिम्ब दक्षिण की ओर से ग्रस्त दिखेगा 

ग्रहण का सूतक काल सोमवार, 7 अगस्त दोपहर 01 बजकर 52 मिनट से 

मकर राशि, श्रवण नक्षत्र में होने वाला यह चंद्रग्रहण भारत समेत एशिया के अधिकांश देशों, ऑस्ट्रेलिया, यूरोपीय देशों, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में दिखाई देगा।

भद्रा की समाप्ति और चंद्र ग्रहण का सूतक लगने के बीच के समय में रक्षाबंधन और श्रवण पूजन करना शुभ रहेगा।

पूर्णिमा के दिन भद्रा का साया सुबह 11:04  मिनट तक रहेगा इसलिए भाई बहन के प्रेम का प्रतीक रक्षा बंधन का त्यौहार इस वर्ष 11:04  मिनट से दोपहर 01  बज कर 50  मिनट तक शुभ रहेगा।

यह चंद्र ग्रहण श्रवण नक्षत्र, मकर राशि में लगेगा। श्रवण चंद्रमा का नक्षत्र है इसलिए जिन लोगों की कुंडली में चंद्रमा की स्थित कमजोर है उनके लिए यह ग्रहण कष्टकारी रहेगा । 

मुहूत्र्तचिंतामणि में कहा गया है - 


‘जन्मक्र्षे निधनं ग्रहे जनिभतो घातः क्षतिः श्री व्र्यथा चिन्ता सौख्यकलत्रदौस्थ्यमृतयः स्युर्माननाशः सुखम्। 
लाभोऽपाय इति क्रमात्तदशुभध्वस्त्यै जपः स्वर्णगो- दानं शान्तिरथो ग्रहं त्वशुभदं नो वीक्ष्यमाहुः परे।।’’ 

अर्थात् जन्मराशि में ग्रहण लगने से शरीर पीड़ा, दूसरी राशि में क्षति व द्रव्यनाश, तीसरी में लक्ष्मी लाभ, चीथी में शरीर पीड़ा, पांचवी में पुत्रादिकों की चिंता, छठी राशि में सुख प्राप्ति, सातवीं राशि में स्त्री-मरण, आठवीं में अपना मरण, नवम राशि में मन का नाश, दशम में सुख, एकादश राशि में लाभ और जन्म राशि से द्वादश राशि में ग्रहण होने पर मृत्यु होती है।

हिन्दू शास्त्रों में सोमवार को होने वाले चंद्र ग्रहण को चूड़मणि संज्ञक कहा गया है। शास्त्रोक्त मान्यता के अनुसार, चूड़ामणि ग्रहण में होने वाला पूजा-पाठ, यज्ञ दान पुण्य अति पुण्य दायी माना जाता है। 


रविवारे सूर्यग्रहश्चन्द्रवारे चंद्रग्रहः। 
चूड़ामणि संज्ञस्तत्र दानादिक मनन्त फलम्।। 

अर्थात रविवार को सूर्यग्रहण और सोमवार को चंद्रग्रहण हो, तो वह चूड़ामणि योग होता है, उसमें दान आदि का अनन्त फल होता है। महाभारत में भी कहा गया है कि ग्रहण काल में भूमि, गांव, सोना, धान्य और अभीष्टित समस्त वस्तुओं का स्वकल्याण हेतु दान देना चाहिए। 


चंद्रसूर्य ग्रहे यस्तु स्नानं दानं शिवार्चनम्, न करोति पितुः श्राद्धं स नरः पतितो भवेत्।। 
सर्व भूमिसमं दानं सर्वे ब्रह्म समा द्विजाः, सर्व गंगासमं तोयं ग्रहणे नात्रसशंय।। 

अर्थात ग्रहणकाल में दिया गया दान भूमिदान के समान फल करता है। सभी द्विज ब्राह्मण समान हो जाते हैं तथा सब जल गंगाजल के समान पवित्र करने वाले हो जाते हैं।

ग्रहणकाल में गाय के दान से सूर्यलोक प्राप्ति, बैल के दान से शिवलोक की, सुवर्ण दान से ऐश्वर्यता की, सर्प के दान से भूमि शासक, घोड़े के दान से बैकुंठ लोक की, पुनः सर्प से ब्रह्मलोक की, भूमि दान से राजपद की ओर अन्न दान करने से समस्त सुखों की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार वस्त्र दान से यश की, चांदी के दान से सुंदर स्वरूप की, फलदान से पुत्रप्राप्ति की, घृत के दान से सौभाग्य की, नमक के दान से शत्रुनाश की तथा हाथी के दान से भूमि के स्वामित्व की प्राप्ति होती है।

ग्रहण काल में सत्पात्रों को दान देकर राहुजन्य दोषों से भी मुक्ति पाई जा सकती है।

विष्णुधर्मोत्तर में आया है- 


'एकस्मिन्यदि मासे स्याद् ग्रहणं चन्द्रसूर्ययो: । 
ब्रह्मक्षत्रविरोधाय विपरीते विवृद्धये॥ विष्णुधर्मोतर (1।85।56) 

'यदि एक ही मास में पहले चन्द्र और उपरान्त सूर्य के ग्रहण हों तो इस घटना के फलस्वरूप ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों में झगड़े या विरोध उत्पन्न होंगे, किन्तु यदि इसका उलटा हो तो समृद्धि की वृद्धि होती है।
उसी पुराण में यह भी आया है- 

'यन्नक्षत्रगतौ राहुर्ग्रसते चन्द्रभास्करौ। 
तज्जातानां भवेत्पीडा ये नरा: शान्तिवर्जिता:॥' विष्णुधर्मोतर (1।85।33-34)।

'उस नक्षत्र में, जिसमें सूर्य या चन्द्र का ग्रहण होता है, उत्पन्न व्यक्ति दु:ख पाते हैं, किन्तु इन दु:खों का मार्जन शान्ति कृत्यों से हो सकता है।' 

इस विषय में अत्रि की उक्ति है-

'आह चात्रि: । 
यस्य स्वजन्मनक्षत्रे ग्रस्येते शशिभास्करौ। 
व्याधिं प्रवासं मृत्युं च राज्ञश्चैव महद्भयम्॥ कालविवेक (पृ. 543), हेमाद्रि (काल. पृ. 392-393)

'यदि किसी व्यक्ति के जन्म-दिन के नक्षत्र में चन्द्र एवं सूर्य का ग्रहण हो तो उस व्यक्ति को व्याधि, प्रवास, मृत्यु एवं राजा से भय होता है।

ग्रहण काल में औषधि स्नान का भी विशेष महत्व है। औषधि स्नान हेतु दूर्वा, खस, शिलाजीत, सिद्धार्थ, सर्वोषधि, दारू, लोध्र आदि औषधियों को जल में डालकर, उससे स्नान करने से ग्रहणजन्य अनिष्ट का नाश होता है। स्नानोपरांत निम्नलिखित स्तोत्र का 11 बार पाठ करना चाहिए । यह स्तोत्र ग्रहणजन्य समस्त अरिष्टों का सहज ही नाश कर देता है।




श्रावणी उपाकर्म और श्रवण पूजन

प्राचीन काल में वेद और वैदिक साहित्य का स्वाध्याय होता था। जिस दिन से वेद पारायण का उपक्रम आरम्भ होता था उसे “उपाकर्म” कहते हैं। यह वेदाध्यन श्रावण सुदी पूर्णिमा से प्रारंभ किया जाता था। इसलिए इसे “श्रावणी उपाकर्म” भी कहा जाता है। इसलिए उस समय से श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को श्रावणी पर्व के रुप में मनाया जाता है। इस दिन द्विज श्रेष्ठ अपने पुराने यज्ञोपवीत को उतारकर नया यज्ञोपवीत धारण करते है।

ऋगवेदियों एवं यजुर्वेदियों के लिए उपाकर्म के तीन काल निश्चित किये गए हैं श्रावण शुक्ल में श्रवण नक्षत्र, श्रावण शुक्ल पंचमी, और श्रावण शुकलान्तर्गत हस्त नक्षत्र,  इसमें श्रवण नक्षत्र उपाकर्म का मुख्य काल है । 

सामान्यतः श्रावणी उपाकर्म श्रावण पूर्णिमा / रक्षा बंधन के दिन ही करने का विधान है लेकिन किसी कारणवश अगर श्रावण पूर्णिमा ग्रहण या संक्रांति से दूषित हो तो उपाकर्म ग्रहण /संक्रांति दोष रहित श्रावण शुक्ल पंचमी या श्रावण शुक्ल पक्ष में आने वाले हस्त नक्षत्र में करना चाहिए ।

ऋग्वेदीय उपाकर्म मुहूर्त: 28 जुलाई 2017 ( इस दिन सुबह पंचमी भी एक घंटे तक विद्यमान रहेगी)

पारस्कर के गुह्य सुत्र में लिखा है-

अथातोSध्यायोपाकर्म। औषधिनां प्रादुर्भावे श्रावण्यां पौर्णमासस्यम् “(2/10/2-2)

यह वेदाध्ययन का उपाकर्म श्रावणी पूर्णिमा से प्रारंभ होकर पौष मास की अमावस्या तक साढे  चार मास (चौमासा) चलता था। पौष में इस उपाकर्म का उत्सर्जन किया जाता था।

इसी परम्परा में हिन्दू संत एवं जैन मुनि वर्तमान में भी चातुर्मास का आयोजन करते हैं, भ्रमण त्याग कर चार मास एक स्थान पर ही रह कर प्रवचन और उपदेश करते हैं।

मनुस्मृति में लिखा है-

श्रावण्यां पौष्ठपद्यां वाप्युपाकृत्य यथाविधि, युक्तश्छन्दांस्यधीयीत मासान् विप्रोSर्ध पंचमान्।।
पुष्ये तु छंदस कुर्याद बहिरुत्सर्जनं द्विज:, माघशुक्लस्य वा प्राप्ते पूर्वार्धे प्रथमेSहनि॥

अर्थात श्रावणी और पौष्ठपदी भ्राद्रपद, पौर्णमासी तिथि से प्रारंभ करके ब्राह्मण लगनपूर्वक साढे चार मास तक छन्द वेदों का अध्ययन करे और पौष मास में अथवा माघ शुक्ल प्रतिपदा को इस उपाकर्म का उत्सर्जन करें।

श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है- प्रायश्चित संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय।

प्रायश्चित रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प - गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गाय के दूध, दही, घी, गोबर, गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं। स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं।

यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्म संयम का संस्कार है। इस दिन द्विज श्रेष्ठ अपने पुराने यज्ञोपवीत को उतारकर नया यज्ञोपवीत धारण करते है और पुराने यज्ञोपवित का पूजन भी करते हैं । इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है।

उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है। इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घी की आहुति से होती है।
जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। 

इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती है। वर्तमान में श्रावणी पूर्णिमा के दिन ही उपाकर्म और उत्सर्ग दोनों विधान कर दिए जाते हैं। प्रतीक रूप में किया जाने वाला यह विधान हमें स्वाध्याय और सुसंस्कारों के विकास के लिए प्रेरित करता है।

भारत में 'श्रावणी पूर्णिमा' के दिन प्रतिवर्ष संस्कृत दिवस और "ऋषि पर्व" मनाया जाता है। संस्कृत विश्व की ज्ञात भाषाओं में सबसे पुरानी भाषा है | सन 1969 में भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के आदेश से केन्द्रीय तथा राज्य स्तर पर संस्कृत दिवस मनाने का निर्देश जारी किया गया था। तब से संपूर्ण भारत में संस्कृत दिवस श्रावण पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। इस दिन को इसीलिए चुना गया था कि इसी दिन प्राचीन भारत में शिक्षण सत्र शुरू होता था। इसी दिन वेद पाठ का आरंभ होता था तथा इसी दिन छात्र शास्त्रों के अध्ययन का प्रारंभ किया करते थे। पौष माह की पूर्णिमा से श्रावण माह की पूर्णिमा तक अध्ययन बन्द हो जाता था। प्राचीन काल में फिर से श्रावण पूर्णिमा से पौष पूर्णिमा तक अध्ययन चलता था, इसीलिए इस दिन को संस्कृत दिवस के रूप से मनाया जाता है।
“जयतु संस्कृतं जयतु भारतम्”

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