1

नवरात्रि का ज्योतिषीय, वैज्ञानिक और आध्यात्मिक रहस्य

काल (समय) चक्र के विभाग अनुसार पूरे एक दिन-रात में चार संधिकाल होते हैं | जिनको हम प्रात:काल, मध्यान्ह काल, सांयकाल और मध्यरात्रि काल कहते हैं | मानव का एक वर्ष का समय देवों के लिए एक दिन और रात के समान होता है जिसे ज्योतिष शास्त्र में दिव्यकालीन अहोरात्र
कहा गया है| ये दिन-रात :-: माह के होते हैं, इन्ही को हम उतरायण और दक्षिणायन के नाम से जानते हैं
यहाँ अयन का अर्थ हैमार्ग
उतरायण=सूर्य देव का मकर क्रांतिवृत्त से उत्तर की और चलना जिसे देवों का दिन
दक्षिणायन=सूर्य देव का  कर्क क्रांतिवृत्त से दक्षिण की और चलना, जिसे देवों की रात्रि कहा जाता है|
जिस प्रकार मकर और कर्क वृ्त से अयन(मार्ग) परिवर्तन होता है, उसी प्रकार मेष और तुला राशियों से उत्तर गोल तथा दक्षिण गोल का परिवर्तन होता है |
एक वर्ष में दो अयन परिवर्तन की संधि और दो गोल परिवर्तन की संधियाँ होती है, कुल मिलाकर एक वर्ष में चार संधियाँ होती हैं, इनको ही नवरात्री के पर्व के रूप में मनाया जाता है|
1. प्रात:काल (गोल संधि) चैत्री नवरात्र
2. मध्यान्ह काल (अयन संधि) आषाढी नवरात्र
3. सांयकाल (गोल संधि) आश्विन नवरात्र
4. मध्यरात्रि (अयन संधि) पौषी नवरात्र

उपरोक्त इन चार नवरात्रियों में गोल संधि की नवरात्रियाँ चैत्र और आश्विन मास की हैं, जो कि दिव्य अहोरात्र के प्रात:काल और सांयकाल की संधि में आती हैं-इन्हे ही विशेष रूप से मनाया जाता है |

हालाँकि बहुत से लोग हैं, जिनके द्वारा अयन संधिगत (आषाढ और पौष) मास की नवारत्रियाँ भी मनाई जाती हैं, लेकिन यह समय विशेषतय: तान्त्रिक कार्यों के लिए महत्वपूर्ण माना जाता हैगृ्हस्थों के लिए गोल संधिगत नवरात्रियों का कोई विशेष महत्व नहीं है|
क्रमश: चित्रा, पूर्वाषाढा, अश्विनी और पुष्य नक्षत्रों पर आधारित चान्द्रमासों में नवरात्रि पर्व का विधान है | वैदिक ज्योतिष में नाक्षत्रीय गुणधर्म के प्रतीक प्रत्येक नक्षत्र का एक देवता कल्पित किया हुआ है | इस कल्पना के गर्भ में भी विशेष महत्व समाया हुआ है, जो कि विचार करने योग्य है|

भारतीय ज्योतिष शास्त्र कालचक्र की संधियों की अभिव्यक्ति करने में समर्थ है | प्राचीन युगदृ्ष्टा ऋषि-मुनियों नें विभिन्न तौर-तरीकों से अभिनव रूपकों में प्रकृ्ति के सूक्ष्म तत्वों को समझाने के तथा उनसे समाज को लाभान्वित करने के अपनी ओर से विशेष प्रयास किए हैं|

संधिकाल में सौरमंडल के समस्त ग्रह पिण्डों की रश्मियों का प्रत्यावर्तन तथा संक्रमण पृ्थ्वी के समस्त प्राणियों को प्रभावित करता है | अत: संधिकाल में दिव्यशक्ति की आराधना, संध्या उपासना आदि करने का ये विधान बनाया गया है|
अयन, गोल तथा ऋतुओं के परिवर्तन मानव मस्तिष्क को आंदोलित करते हैं |मानव मस्तिष्क, जो कि अनन्त शक्ति स्त्रोतों का अक्षय भंडार है | उसमें जहाँ संसार के निर्माण करने की स्थिति है, वहीं संहार करने की शक्ति भी केन्द्रित है|

यही कारण है कि त्रिगुणात्मक महाकाली, महासरस्वती और महादुर्गा हमारी आराध्य रही हैं |
यह पर्व रात्रि प्रधान इसलिए है कि शास्त्रों में रात्रि रूपा यतोदेवी दिवा रूपो महेश्वर: अर्थात दिन को शिव(पुरूष) रूप में तथा रात्रि को शक्ति(प्रकृ्ति) रूपा माना गया है | एक ही तत्व के दो स्वरूप हैं, फिर भी शिव(पुरूष) का अस्तित्व उसकी शक्ति(प्रकृ्ति) पर ही आधारित है|

इस बात को समझने की जरूरत है कि अखिल पिण्ड ब्राह्मंड के समस्त संकेत के पारखी ऋषि-मुनियों नें नैसर्गिक सुअवसरों को परख कर हमें विशेष रूप से संस्कारित बनाने का प्रयास किया है|

त्रिविध ताप नाश की इस पुनीत पर्व की गरिमा को समझते हुए हमें दिव्यशक्ति की आराधना, उपासना करते हुए पूर्ण मर्यादासहित(मन को विषय भोगों से दूर रख) नवरात्रि पूजन करना आवश्यक है | यह समय किसी धर्म, जाति या सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्धित होकर मानव मात्र के लिए कल्याणप्रद है|

No comments:

Post a Comment

We appreciate your comments.

Lunar Eclipse 2017