मान्यता है कि संक्रांति
एक देवी का नाम है। एक किंवदंती के अनुसार, संक्रांति ने सनकारासुर नाम के एक दैत्य
का वध किया था। मकर संक्रांति के दूसरे दिन तो कारादिन या किंकरांत कहा जाता है. इसी
दिन देवी ने किंकारासुर की हत्या की थी
संक्रान्ति' का अर्थ
है सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण, अत: जिस राशि में सूर्य प्रवेश करता
है, उसे संक्रान्ति कहा जाता है।
मेषादिषु द्वादशराशिषु क्रमेण सञ्चरत: सूर्यस्य
पूर्वस्माद्राशेरुत्तरराशौ संक्रमणं प्रवेश: संक्रान्ति।
अतस्तद्राशिनामपुर:सरं सा संक्रान्तिर्व्यपदिश्यते। (काल निर्णय,
पृष्ठ 331)
मलमास पड़ जाने पर भी वर्ष में केवल 12 संक्रान्तियाँ होती हैं। प्रत्येक संक्रान्ति पवित्र दिन के रूप में ग्राह्य है।
मलमास पड़ जाने पर भी वर्ष में केवल 12 संक्रान्तियाँ होती हैं। प्रत्येक संक्रान्ति पवित्र दिन के रूप में ग्राह्य है।
रवे: संक्रमणं राशौ संक्रान्तिरिति कथ्यते।
स्नानदानतप:श्राद्धहोमादिषु महाफला।।
(नागरखंड - हेमाद्रि, काल, पृष्ठ
410)
सूर्य जब एक
राशि छोड़कर दूसरी
में प्रवेश करता
है तो उस काल का
यथावत् ज्ञान हमारी
माँसल आँखों से
सम्भव नहीं है,
अत: संक्रान्ति की
30 घटिकाएँ इधर या
उधर के काल का द्योतन
करती हैं[ देवीपुराण
में संक्रान्ति काल
की लघुता का
उल्लेख इस प्रकार है-
'स्वस्थ एवं सुखी
मनुष्य जब एक बार पलक
गिराता है तो उसका तीसवाँ
काल 'तत्पर' कहलाता
है, तत्पर का
सौवाँ भाग 'त्रुटि'
कहा जाता है तथा त्रुटि
के सौवें भाग
में सूर्य का
दूसरी राशि में
प्रवेश होता है।
सामान्य नियम यह
है कि वास्तविक
काल के जितने
ही समीप कृत्य
हो वह उतना ही पुनीत
माना जाता है।'
इसी से संक्रान्तियों
में पुण्यतम काल
सात प्रकार के
माने गये हैं-
3, 4, 5, 7, 8, 9 या 12 घटिकाएँ। इन्हीं अवधियों
में वास्तविक फल
प्राप्ति होती है।
यदि कोई इन अवधियों के भीतर प्रतिपादित कृत्य न कर सके
तो उसके लिए
अधिकतम काल सीमाएँ
30 घटिकाओं की होती
हैं; किंतु ये
पुण्यकाल-अवधियाँ षडशीति (इसमें
अधिकतम पुण्यकाल 60 घटिकाओं
का है ) एवं
विष्णुपदी (जहाँ 16 घटिकाओं की इधर-उधर छूट
है ) को छोड़कर
अन्य सभी संक्रान्तियों
के लिए है।'
संक्रान्त्यां
पक्षयोरन्ते ग्रहणे चन्द्रसूर्ययो:।
गंगास्नातो नर: कामाद् ब्रह्मण: सदनं व्रजेत्।।
भविष्यपुराण (वर्ष क्रिया कौमदी., पृष्ठ 415)।
संक्रान्ति,
ग्रहण, अमावस्या एवं
पूर्णिमा पर गंगा
स्नान महापुण्यदायक माना
गया है और ऐसा करने
पर व्यक्ति ब्रह्मलोक
को प्राप्त करता
है।
देवीपुराण में घोषित
है- 'जो व्यक्ति
संक्रान्ति के पवित्र
दिन पर स्नान
नहीं करता वह सात जन्मों
तक रोगी एवं
निर्धन रहेगा; संक्रान्ति
पर जो भी देवों को
हव्य एवं पितरों
को कव्य दिया
जाता है, वह सूर्य द्वारा
भविष्य के जन्मों
में लौटा दिया
जाता है।
मत्स्यपुराण में संक्रान्ति
व्रत का वर्णन
है। एक दिन पूर्व व्यक्ति
(नारी या पुरुष)
को केवल एक बार मध्याह्न
में भोजन करना
चाहिए और संक्रान्ति
के दिन दाँतों
को स्वच्छ करके
तिल युक्त जल
से स्नान करना
चाहिए। व्यक्ति को
चाहिए कि वह किसी संयमी
ब्राह्मण गृहस्थ को
भोजन सामग्रियों से
युक्त तीन पात्र
तथा एक गाय यम, रुद्र
एवं धर्म के नाम पर
दे और चार श्लोकों को पढ़े,
जिनमें से
एक यह है-
'यथा भेदं' न पश्यामि शिवविष्ण्वर्कपद्मजान्।
तथा ममास्तु विश्वात्मा शंकर:शंकर: सदा।।'
अर्थात् 'मैं शिव
एवं विष्णु तथा
सूर्य एवं ब्रह्मा
में अन्तर नहीं
करता, वह शंकर,
जो विश्वात्मा है,
सदा कल्याण करने
वाला है। दूसरे
शंकर शब्द का अर्थ है-
शं कल्याणं करोति।
यदि हो सके
तो व्यक्ति को
चाहिए कि वह ब्राह्मण को आभूषणों,
पर्यंक, स्वर्णपात्रों (दो)
का दान करे।
यदि वह दरिद्र
हो तो ब्राह्मण
को केवल फल दे। इसके
उपरान्त उसे तैल-विहीन भोजन
करना चाहिए और
यथा शक्ति अन्य
लोगों को भोजन देना चाहिए।
स्त्रियों को भी
यह व्रत करना
चाहिए।
वेदों पुराणों में मकर संक्रांति को देवताओं की सुबह कहा गया है। और इसके बाद से देवताओं का दिन आरंभ हो जाता है। उत्तरायण सूर्य अपने साथ नयी उर्जा लेकर आता है। प्रकृति और मनुष्यों में नव चेतना का संचार करता है। मकर संक्रांति के दिन सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक वातावरण में अधिक मात्रा में चैतन्य होता है। साधना करने वाले जीव को इसका सर्वाधिक लाभ होता है। इस चैतन्य के कारण जीव में विद्यमान तेज तत्व के बढ़ने में सहायता मिलती है। इस दिन रज, तम की अपेक्षा सात्विकता बढ़ाने एवं उसका लाभ उठाने का प्रत्येक जीव प्रयास करे। मकर संक्रांति का दिन साधना के लिए अनुकूल है। इसलिए इस काल में अधिक से अधिक साधना कर ईश्वर एवं गुरु से चैतन्य प्राप्त करने का प्रयास करें। वैदिक युग में सूर्योपासना दिन में तीन बार की जाती थी। पितामह भीष्म ने भी सूर्य के उत्तरायण होने पर ही अपना प्राणत्याग किया था। हमारे मनीषी इस समय को बहुत ही श्रेष्ठ मानते हैं। इस अवसर पर लोग पवित्र नदियों एवं तीर्थस्थलों पर स्नान कर आदिदेव भगवान सूर्य से जीवन में सुख व समृद्धि हेतु प्रार्थना व याचना करते हैं। मकर संक्रांति सामाजिक समरसता का पर्व है। मान्यता है कि तिलए घीए गुड़ और काली उड़द की खिचड़ी का दान और उसका सेवन करने से शीत का प्रकोप शांत होता है।
दक्षिण भारत में बालकों के विद्याध्ययन का पहला दिन मकर संक्रांति से शुरू कराया जाता है। प्राचीन रोम में इस दिन खजूर अंजीर और शहद बांटने का उल्लेख मिलता है। ग्रीक के लोग वर-वधू को संतान वृद्धि के लिए तिल से बने पकवान बांटते थे।
दक्षिण भारत में बालकों के विद्याध्ययन का पहला दिन मकर संक्रांति से शुरू कराया जाता है। प्राचीन रोम में इस दिन खजूर अंजीर और शहद बांटने का उल्लेख मिलता है। ग्रीक के लोग वर-वधू को संतान वृद्धि के लिए तिल से बने पकवान बांटते थे।
वर्ष की बारह
संक्रांतियों के लिए
दान की वस्तुयें
पञ्चसिद्धान्तिका
(3|23-24, पृष्ठ 9)
मेषतुलादौ विषुवत् षडशीतिमुखं तुलादिभागेषु।
षडशीतिमुखेषु रवे: पितृदिवसा येऽवशेषा: स्यु:।।
षडशीतिमुखं कन्याचतुर्दशेऽष्टादशे च मिथुनस्य।
मीनस्य द्वार्विशे षडविशे कार्मुकस्यांशे।।
तुला आदिर्यस्या: सा तुलादि: कन्या।
द्वादशैव भवन्त्येषां द्विज नामानि मे श्रृणु।
एकं विष्णुपदं नाम षडशीतिमुखं तथा।।
विषुवं च तृतीयं च अन्ये द्वे दक्षिणोत्तरे।।
कुम्भालिगोहरिषु विष्णुपदं वदन्ति स्त्रीचापमीनमिथुने षडशीतिवक्त्रम्।
अर्कस्य सौम्यमयनं शशिधाम्नि याम्यमृक्षे झषे विषुवति त्वजतौलिनो: स्यात्।। ब्रह्मवैवर्त
कुछ शब्दों की
व्याख्या आवश्यक है-
अलि वृश्चिक, गो
वृषभ, हरि सिंह,
स्त्री कन्या, चाप
धनु:, शशिधाम्नि शशिगृह
कर्कटक, सौम्यायन उत्तरायण,
याम्य दक्षिणायन (यम
दक्षिण का अधिपति
है), झष मकर, अज मेष,
तौली (जो तराजू
पकड़े रहता है)
तुला।'
मेष में भेड़,
वृषभ में गायें,
मिथुन में वस्त्र,
भोजन एवं पेय पदार्थ, कर्कट में
घृतधेनु, सिंह में
सोने के साथ वाहन, कन्या
में वस्त्र एवं
गौएँ, नाना प्रकार
के अन्न एवं
बीज, तुला-वृश्चिक
में वस्त्र एवं
घर, धनु में वस्त्र एवं
वाहन, मकर में इन्घन एवं
अग्नि, कुम्भ में
गौएँ जल एवं घास, मीन
में नये पुष्प।
अन्य विशेष प्रकार
के दानों के
विषय में देखिए
स्कन्दपुराण , विष्णुधर्मोत्तर, कालिका आदि।
स्कन्दे-धेनुं तिलमयीं राजन् दद्याद्यश्चोत्तरायणे।
सर्वान् कामानवाप्नोति विन्दते परमं सुखम।।
विष्णुधर्मोत्तरे-उत्तरे त्वयने विप्रा वस्त्रदनं महाफलम्।
तिलपूर्वमनड्वाहं दत्त्व। रोगै: प्रमुच्यते।। शिवरहस्ये।
पुरा मकरसंक्रान्तौ शंकरो गोसवे कृते।
तिलानुत्पादयामास तृप्तये सर्वदेहिनाम्।
तस्मात्तस्यां तिलै: स्नानं कार्य चोद्वर्तनं बुधै:।
देवतानां विपृणां च सोदकैस्तर्पणं तिलै:।
तिला देयाश्च विप्रेभ्य: सर्वदैवोत्तरायणे।
तिलांश्च भक्षयेत्पुण्यान् होतव्याश्च तथा तिला:।
तस्यां तथौ तिलैर्हुत्वा येऽर्चयन्ति द्विजोत्तमान्।
त्रिदिवे ते विराजन्ते गोसहस्त्रप्रदायिन:।
तिलतैलेन दीपाश्च देया: शिवगृहे शुभा:।
सतिलैस्तण्डुलैर्देवं पूजयेद्विधिवद् द्विजम्।। हेमाद्रि (काल, पृष्ठ 415-416);
निर्णय सिंधु (पृष्ठ
218) के अनुसार गोसहस्त्र 16 महादानों में
एक है।
'त्रिदिवे ते विराजन्ते'
'उच्चा दिवि दक्षिणावन्तो अस्थुर्ये अश्वदा स्रह ते सूर्येण।'
राजमार्तण्ड में संक्रान्ति
पर किये गये
दानों के पुण्य-लाभ पर
दो श्लोक हैं-
'अयन संक्रान्ति
पर किये गये
दानों का फल सामान्य दिन के दान के
फल का कोटिगुना
होता है
और
विष्णुपदी पर वह
लक्षगुना होता है;
षडशीति पर यह
86000 गुना घोषित है
|
चंद्र ग्रहण पर
दान सौ गुना
एवं
सूर्य ग्रहण पर
सहस्त्र गुना, विषुव
पर शतसहस्त्र गुना
तथा
आकामावै (आ-आषाढ़,
का-कार्तिक, मा-माघ, वै-वैशाख)
की पूर्णिमा पर
अनन्त फलों को देने वाला
है।
भविष्यपुराण ने अयन
एवं विषुव संक्रान्तियों
पर गंगा-यमुना
की प्रभूत महत्ता
गायी है।
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