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देव दीपावली



देवताओं के पृथ्वी पर अवतरण का प्रतीक है 'देव दीपावली'

दामोदराय विश्वाय विश्वरूपधराय च।
नमस्कृत्वा प्रदास्यामि व्योमदीपं हरिप्रियम।।

कार्तिक मास की प्रतिपदा से पूर्णिमा तक आकाशदीप जलाने की परम्परा अंधियारे से उजाले की ओर बढ़ने की सनातन परम्परा है।

जैसा उपनिषद भी कहते हैं-

'तमसो मा ज्योतिर्गमय` अर्थात अंधेरे से प्रकाश की ओर चलो।

कहते हैं धरा वासियों द्वारा दीपावली मनाने के एक पक्ष बाद कार्तिक पूर्णिमा पर देवताओं की दीपावली होती है।

दीपक में अग्नि देवता का आह्वाहन किया जाता हैं। दीपक में प्राण संचालन व चैतन्य शक्ति होती है। दीप ''आशा" का प्रतीक है जो नूतन चेतना व नवीन कार्य करने की प्रेरणा देता है। दीपक के प्रकाश में स्वच्छता एवं सत्यता का आभास होता है तथा भ्रांत धारणाओं-भय एवं भ्रम का निराकरण होता है। भारतीय दर्शन में दीपक पवित्रता का प्रतीक व शुभकर्मों का साक्षी माना गया है। इसलिये पूजा कर्म में दीपक जलाने का विधान है क्योंकि इसके प्रकाश में कभी गंदा, अपवित्र या पाप कर्म नहीं होता।

धरावासियों की दीपावली के पश्चात् देवतागण भी कार्तिक पूर्णिमा के दिन देव-दीपावली मानाने के लिए स्वर्ग से गंगा के पावन घाटों पर अदृश्य रूप में अवतरित होते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो देव दीपावली, दीपोत्सव के अंत का प्रतीक है। कहते हैं कि इस दिन देव भी दिया जलाते हैं।
पौराणिक कथा के अनुसार इस दिन भगवान विष्णु अपने वामन अवतार के बाद और बलि के पास से लौटकर अपने निवास स्थान बैकुंठ पधारे थे। इसी खुशी में लोगों ने दीप जलाए थे।
इसी दिन सायंकाल के समय भगवान का मत्स्यावतार हुआ था, इसलिए इस दिन दिए गए दान का दस यज्ञों के समान फल मिलता है।
कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूर्णिमा या गंगा स्नान के नाम से भी जाना जाता है । इस पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूर्णिमा की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि आज के दिन ही भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर का अंत किया था जो अपनी आसुरी शकित का प्रचार करके निर्दोष मनुष्यों का वध करते थे। और भगवान भोलेनाथ त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे।

ऐसी मान्यता है कि इस दिन कृतिका में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है।

इस दिन चन्द्र जब आकाश में उदित हो रहा हो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है। 
इस दिन गंगा नदी में स्नान करने से भी पूरे वर्ष स्नान करने का फाल मिलता है।
मान्यताओं के अनुसार 'असुरों के वध के बाद मनाई गई इस देव दीपावली के अवसर पर काशी के घाटों पर 33 करोड़ देवता भगवान विष्णु की आराधना में दीप प्रज्वलन कर यह पर्व मनाते हैं।

एक अन्य कथा के अनुसार
त्रिशंकु को राजर्षि विश्वामित्र ने अपने तपोबल से स्वर्ग पहुँचा दिया। देवतागण इससे उद्विग्न हो गए और त्रिशंकु को देवताओं ने स्वर्ग से भगा दिया। शापग्रस्त त्रिशंकु अधर में लटके रहे। त्रिशंकु को स्वर्ग से निष्कासित किए जाने से क्षुब्ध विश्वामित्र ने पृथ्वी-स्वर्ग आदि से मुक्त एक नई समूची सृष्टि की ही अपने तपोबल से रचना प्रारंभ कर दी।

उन्होंने कुश, मिट्टी, ऊँट, बकरी-भेड़, नारियल, कोहड़ा, सिंघाड़ा आदि की रचना का क्रम प्रारंभ कर दिया। इसी क्रम में विश्वामित्र ने वर्तमान ब्रह्मा-विष्णु-महेश की प्रतिमा बनाकर उन्हें अभिमंत्रित कर उनमें प्राण फूँकना आरंभ किया। सारी सृष्टि डाँवाडोल हो उठी। हर ओर कोहराम मच गया। हाहाकार के बीच देवताओं ने राजर्षि विश्वामित्र की अभ्यर्थना की।

महर्षि प्रसन्न हो गए और उन्होंने नई सृष्टि की रचना का अपना संकल्प वापस ले लिया। देवताओं और ऋषि-मुनियों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल सभी जगह इस अवसर पर दीपावली मनाई गई। यही अवसर अब देव दीपावली के रूप में विख्यात है।

तुलसी विवाह की रस्म भी इस दिन पूरी होती है और इस दिन तुलसी विदार्इ होती है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन स्वयं भगवान श्रीष्ण तुलसी महारानी की पूजा निम्नलिखित मंत्र से करते हैं:

वृंदावनी वृंदा विश्वपूजिता पुष्पसार।
नंदिनी कृष्णजीवनी विश्वपावनी तुलसी।

इस मंत्र से पूर्णिमा के दिन जो भी व्यकित तुलसी महारानी की पूजा करता है वह जन्म-मृत्यु के चक्रव्यूह से मुक्त होकर गोलोक वृंदावन जाने का अधिकारी बनता है।
पुराणानुसार प्रलय काल में वेदों की रक्षा के लिए तथा सृष्टि को बचाने के लिए इसी दिन भगवान श्रीहरि ने मत्स्य अवतार धारण किया था।

महाभारत काल में हुए 18 दिनों के विनाशकारी युद्ध में योद्धाओं और सगे संबंधियों को देखकर जब युधिष्ठिर कुछ विचलित हुए तो भगवान श्री कृष्ण पांडवों के साथ गढ़ खादर के विशाल रेतीले मैदान पर आए। कार्तिक शुक्ल अष्टमी को पांडवों ने स्नान किया और कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक गंगा किनारे यज्ञ किया। इसके बाद रात में दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए दीपदान करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की। इसलिए इस दिन गंगा स्नान का और विशेष रूप से गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ नगरी में आकर स्नान करने का विशेष महत्व है।

मान्यता यह भी है कि इस दिन पूरे दिन व्रत रखकर रात्रि में वृषदान यानी बछड़ा दान करने से शिवपद की प्राप्ति होती है। जो व्यक्ति इस दिन उपवास करके भगवान भोलेनाथ का भजन और गुणगान करता है उसे अग्निष्टोम नामक यज्ञ का फल प्राप्त होता है। इस पूर्णिमा को शैव मत में जितनी मान्यता मिली है उतनी ही वैष्णव मत में भी।

वैष्णव मत में कार्तिक पूर्णिमा को बहुत अधिक मान्यता मिली है इस पूर्णिमा को महाकार्तिकी भी कहा गया है। यदि इस पूर्णिमा के दिन भरणी नक्षत्र हो तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है।
अगर रोहिणी नक्षत्र हो तो इस पूर्णिमा का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है।
इस दिन कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और बृहस्पति हों तो यह महापूर्णिमा कहलाती है।
कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और विशाखा पर सूर्य हो तो "पद्मक योग" बनता है जिसमें गंगा स्नान करने से पुष्कर से भी अधिक उत्तम फल की प्राप्ति होती है।
त्रिकार्तिकी यदि किसी कारणवश पूरे कार्तिक मास का व्रत न लिया जा सके तो कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अन्तिम तीन दिन त्रयोदशी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा तिथियों पर भी यथाविधि कार्तिक मास के नियमों का पालन करे तो पूरे कार्तिक मास स्नान का फल प्राप्त हो जाता है।

ये तिथियाँ अतिपुष्करिणी कही गयी हैं और यह तीन दिनों का व्रत 'त्रिकार्तिकी` कहलाता है।
त्रयोदशी में समस्त वेद प्राणियों को पवित्र करते हैं,
चतुर्दशी में यज्ञ और देवता सब जीवों को पावन बनाते हैं
और
पूर्णिमा में भगवान विष्णु से अधिष्ठित सभी तीर्थ जल प्राणियों को शुद्ध करते हैं।
अंजु आनंद-चंडीगढ़ 
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