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पंचांग के सिद्धांत

गणना के आधार पर हिन्दू पंचांग की तीन प्रकार की कैलेंडर गणना हैं- पहली चंद्र आधारित, दूसरी नक्षत्र आधारित और तीसरी सूर्य आधारित कैलेंडर पद्धति। एक वर्ष में 12 मास होते हैं। प्रत्येक मास में 15 दिन के दो पक्ष होते हैं- शुक्ल और कृष्ण। 
वर्ष में दो अयन होते हैं। इन दो अयनों के 27 नक्षत्रों में 12 राशियां भ्रमण करती हैं
पंचांग शब्द पाँच अंगो से मिलकर बना हैं जिसमे निम्न पाँच अंग होते हैं
तिथि, वार, नक्षत्र, योग व करण |






पंचांग के सिद्धांत
पंचांग के मुख्यत: तीन सिद्धान्त प्रयोग में लाये जाते हैं, -
सूर्य सिद्धान्त - अपनी विशुद्धता के कारण सारे भारत में प्रयोग में लाया जाता है।
आर्य सिद्धान्त - त्रावणकोर, मलावार, कर्नाटक में माध्वों द्वारा, मद्रास के तमिल जनपदों में प्रयोग किया जाता है, एवं
ब्राह्मसिद्धान्त - गुजरात एवं राजस्थान में प्रयोग किया जाता है
विशेष
ब्राह्मसिद्धान्त सिद्धान्त अब सूर्य सिद्धान्त सिद्धान्त के पक्ष में समाप्त होता जा रहा है। सिद्धान्तों में महायुग से गणनाएँ की जाती हैं, जो इतनी क्लिष्ट हैं कि उनके आधार पर सीधे ढंग से पंचांग बनाना कठिन है। अतः सिद्धान्तों पर आधारित 'करण' नामक ग्रन्थों के आधार पर पंचांग निर्मित किए जाते हैं, जैसे - बंगाल में मकरन्द, गणेश का ग्रहलाघव। ग्रहलाघव की तालिकाएँ दक्षिण, मध्य भारत तथा भारत के कुछ भागों में ही प्रयोग में लायी जाती हैं।
§  सिद्धान्तों में अन्तर के दो महत्त्वपूर्ण तत्त्व महत्त्वपूर्ण हैं -
1.   वर्ष विस्तार के विषय में। वर्षमान का अन्तर केवल कुछ विपलों का है, और
2.   कल्प या महायुग या युग में चन्द्र एवं ग्रहों की चक्र-गतियों की संख्या के विषय में।
§  यह केवल भारत में ही पाया गया है। आजकल का यूरोपीय पंचांग भी असन्तोषजनक है।

अन्य पंचांग

मुसलमानों ने अयनवृत्तीय वर्ष के विस्तार पर ध्यान नहीं दिया और चन्द्र को काल का मापक मानकर इस जटिलता का समाधान कर लिया। उनका वर्ष विशुद्ध 'चन्द्र वर्ष' है। इसका परिणाम यह हुआ कि मुसलमानी वर्ष केवल 354 दिनों का हो गया और लगभग 33 वर्षों में उनके सभी उत्सव वर्ष के सभी मासों में घूम जाते हैं।
प्राचीन मिस्र में चन्द्र को काल के मापक रूप में नहीं माना और उनके वर्ष में 365 दिन थे, 30 दिनों के 12 मास एवं 5 अतिरिक्त दिन। उनके पुरोहित-गण 3000 वर्षों तक यही विधि अपनाते रहे; उनके यहाँ अतिरिक्त वर्ष या मलमास नहीं थे।
ऋग्वेद में भी अतिरिक्त मास का उल्लेख है, किन्तु यह किस प्रकार व्यवस्थित था, वेदांग ज्योतिष ने पाँच वर्षों में दो मास जोड़ दिए हैं। प्राचीन काल में मासों की गणना चन्द्र से एवं वर्षों की सूर्य से होती थी। लोग पहले से सही जान लेना चाहते थे कि व्रत एवं उत्सवों के लिए पूर्णिमा या परिवा (प्रतिपदा) कब पड़ेगी, कब वर्षा होगी, शरद कब आयेगी और कब बीज डालें जाएँ और अन्न के पौधे काटे जाएँगे। यज्ञों का सम्पादन वसन्त ऋतु में या अन्य ऋतुओं में, प्रथम तिथि या पूर्णिमा को होता था।
चन्द्र वर्ष के 354 दिन सौर वर्ष के दिनों से 11 कम पड़ते थे। अतः यदि केवल चन्द्र वर्ष की गणना हो तो ऋतुओं को पीछे हटाना पड़ जाएगा। इसीलिए कई देशों में अधिक मास की योजना निश्चित हुई।
यूनानियों में 'ऑक्टाएटेरिस' की योजना थी, जिसमें 99 मास थे, जिनमें तीसरा, पाँचवाँ एवं आठवाँ मलमास थे। इसके उपरान्त 19 वर्षों का मेटानिक वृत्त बना, जिसमें 7 अधिक मास (19×12+7=235) निर्धारित हुए।
ओल्मस्टीड का कथन है कि बेबिलोन में मलमास-वृत्त आठ वर्षों का था, जिसे यूनानियों ने अपनाया था।
फादिरंघम  का कहना है कि बेबिलोनी मलमास पद्धति ई. पू. 528-तक असंयमित थी
तथा यूनान में ई. पू.पाँचवीं एवं चौथी शतियों में अव्यवस्थित थी।




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