28 मई,2014 (बुधवार) :
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनि देव न्यायाधीश हैं। शनि देव हिन्दू धर्म में पूजे जाने वाले
प्रमुख देवताओं में से एक हैं।इस समय शनि उच्च के (साथ ही वक्री भी) राहु के साथ तुला राशि में स्थित है।शनि के
अधिदेवता प्रजापति ब्रह्मा और प्रत्यधिदेवता यम हैं। इनका वर्ण कृष्ण, वाहन गिद्ध तथा रथ लोहे
का बना हुआ है। यह एक-एक राशि में तीस-तीस महीने तक रहते हैं। यह मकर और कुम्भ
राशि के स्वामी हैं तथा इनकी महादशा 19 वर्ष की होती है।
शनि जयंती एक हिन्दू पर्व है जो ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष अमावस्या को मनाया जाता है।
माना जाता है कि इस दिन शनि देव का जन्म हुआ था।जन्म के समय से ही शनि देव श्याम वर्ण, लंबे शरीर, बड़ी आंखों वाले और बड़े केशों वाले थे।यह माना जाता है कि शनि देव मनुष्य को उसके पाप और बुरे कार्यों आदि का दण्ड प्रदान करते हैं। इनकी शरीर-कान्ति इन्द्रलीलमणि के समान है। सिर पर स्वर्ण मुकुट, गले में माला तथा शरीर पर नीले रंग के वस्त्र सुशोभित हैं। शनि देव गिद्ध पर सवार रहते हैं। हाथों में क्रमश: धनुष, बाण, त्रिशूल और वरमुद्रा धारण करते हैं।
माना जाता है कि इस दिन शनि देव का जन्म हुआ था।जन्म के समय से ही शनि देव श्याम वर्ण, लंबे शरीर, बड़ी आंखों वाले और बड़े केशों वाले थे।यह माना जाता है कि शनि देव मनुष्य को उसके पाप और बुरे कार्यों आदि का दण्ड प्रदान करते हैं। इनकी शरीर-कान्ति इन्द्रलीलमणि के समान है। सिर पर स्वर्ण मुकुट, गले में माला तथा शरीर पर नीले रंग के वस्त्र सुशोभित हैं। शनि देव गिद्ध पर सवार रहते हैं। हाथों में क्रमश: धनुष, बाण, त्रिशूल और वरमुद्रा धारण करते हैं।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार शनिदेव
का स्वभाव क्रूर बताया गया है। शनि की तिरछी नजर या टेढ़ी चाल का प्रभाव घातक माना
जाता है। ये क्रूर ग्रह माने जाते हैं। इनकी दृष्टि में जो क्रूरता है, वह इनकी पत्नी के शाप के
कारण है।
ब्रह्म पुराण में एक कथा के अनुसार बचपन से ही शनि भगवान श्रीकृष्ण के परम
भक्त थे। वे श्रीकृष्ण के अनुराग में निमग्न रहा करते थे। वयस्क होने पर इनके पिता
ने चित्ररथ की कन्या से इनका विवाह कर दिया था। इनकी पत्नी सती, साध्वी और परम तेजस्विनी
थी। एक रात वह ऋतु स्नान करके पुत्र प्राप्ति की इच्छा से शनि के पास पहुँची,
पर यह श्रीकृष्ण
के ध्यान में निमग्न थे। इन्हें बाह्य संसार की सुध ही नहीं थी। पत्नी प्रतीक्षा
करके थक गयी। उसका ऋतुकाल निष्फल हो गया। इसलिये उसने क्रुद्ध होकर शनि देव को शाप
दे दिया कि आज से जिसे तुम देख लोगे, वह नष्ट हो जायगा। ध्यान टूटने पर शनि देव ने अपनी
पत्नी को मनाया। पत्नी को भी अपनी भूल पर पश्चात्ताप हुआ, किन्तु शाप के प्रतिकार की शक्ति
उसमें न थी, तभी से शनि देवता अपना सिर नीचा करके रहने लगे। क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि
इनके द्वारा किसी का अनिष्ट हो।
जब शनि देव का जन्म हुआ तो उनकी दृष्टि पिता पर पड़ते ही सूर्य को कुष्ठ रोग
हो गया।
शनि जन्म के संदर्भ में एक पौराणिक कथा बहुत मान्य है जिसके अनुसार शनि, सूर्य देव और उनकी पत्नी छाया के
पुत्र हैं। सूर्य देव का विवाह प्रजापति दक्ष की पुत्री संज्ञा से हुआ। कुछ समय पश्चात
उन्हें तीन संतानों के रूप में मनु, यम और यमुना की प्राप्ति हुई।
इस प्रकार कुछ समय तो संज्ञा ने सूर्य के साथ निर्वाह किया परंतु संज्ञा
सूर्य के तेज को अधिक समय तक सहन नहीं कर पाईं उनके लिए सूर्य का तेज सहन कर पाना
मुश्किल होता जा रहा था। इसी वजह से संज्ञा ने अपनी छाया को पति सूर्य की सेवा में
छोड़कर वहां से चली चली गईं। कुछ समय बाद छाया के गर्भ से शनि देव का जन्म हुआ।
सूर्य के अन्य पुत्रों की अपेक्षा शनि शुरू से ही विपरीत स्वभाव के थे।
धीरे-धीरे शनि देव का पिता से मतभेद होने लगा। सूर्य चाहते थे कि शनि अच्छा कार्य
करें, मगर
उन्हें हमेशा निराश होना पड़ा। संतानों के योग्य होने पर सूर्य ने प्रत्येक संतान
के लिए अलग-अलग लोक की व्यवस्था की, मगर शनि देव अपने लोक से संतुष्ट नहीं हुए। उसी समय
शनि ने समस्त लोकों पर आक्रमण की योजना बना डाली। सूर्य देव के कहने पर भगवान शिव
ने शनि को बहुत समझाया, मगर वह नहीं माने। उनकी मनमानी पर भगवान शिव ने शनि को
दंडित करने का निश्चय किया और दोनों में घनघोर युद्ध हुआ। भगवान शिव के प्रहार से
शनिदेव अचेत हो गए, तब सूर्य का पुत्र मोह जगा और उन्होंने शिव से पुत्र के जीवन की प्रार्थना की।
तत्पश्चात शिव ने शनि को दंडाधिकारी बना दिया। शनि न्यायाधीश की भाँति जीवों को
दंड देकर भगवान शिव का सहयोग करने लगे।
शनि देव के विषय में यह कहा जाता है कि-
शनिदेव के कारण गणेश जी का सिर छेदन हुआ।
शनिदेव के कारण राम जी को वनवास हुआ था।
रावण का संहार शनिदेव के कारण हुआ था।
शनिदेव के कारण पांडवों को राज्य से भटकना पड़ा।
शनि के क्रोध के कारण विक्रमादित्य जैसे राजा को कष्ट झेलना
पड़ा।
शनिदेव के कारण राजा हरिशचंद्र को दर-दर की ठोकरें खानी
पड़ी।
राजा नल और उनकी रानी दमयंती को जीवन में कई कष्टों का
सामना करना पड़ा था।
किंतु शास्त्रों में ही इससे बचने व शनि कृपा पाने के लिए शनि उपासना के उपाय
भी बताए गए हैं। इसी कड़ी में शनि की जन्मतिथि शनिश्चरी जयंती, शनि की विशेष उपासना से
शनि दशा से हो रही पीड़ा और कष्टों से छुटकारे के लिए बहुत ही शुभ मानी गई
है।इनमें शनि वैदिक मंत्र, तांत्रिक मंत्र, शनि का पौराणिक मंत्र और महामृत्युंजय मंत्र प्रमुख
है।
ॐ सूर्यपुत्रो
दीर्घदेही विशालाक्षा शिवप्रिया|
मंदाचारा
प्रसन्न्तात्मा पीड़ां हरतु में शनि||
इस मंत्र से शनि का ध्यान कर आगे की पूजा में तिल, तेल, काला कपड़ा, लोहे की वस्तु, काली उड़द आदि चढ़ाकर
शनि पूजा, मंत्र जप और आरती करें तो वह शनि की प्रसन्नता के लिए बहुत ही शुभ माना गया
है।
शनि का पौराणिक मंत्र -
ॐ नीलांजनसमाभासं
रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छायामार्तण्डसम्भूतं
तं नमामि शनैश्चरम् ।।
इस मंत्र का 21 दिन में 23000 जप करना अनिवार्य है।
शनि का वैदिक मंत्र -
ॐ शत्रोदेवीरभिष्टय
आपो भवन्तु पीतये।
शंयोरभिस्र वन्तु न:।
इस मंत्र का सुबह-शाम दो माला करने से शनि की प्रसन्नता और कृपा प्राप्त होती
है।
शनि का तांत्रिक मंत्र -
ॐ प्रां प्रीं प्रौं
सः शनये नमः
शनि ग्रह पीड़ा नाशक मंत्र -
ॐ शं शनैश्चराय नम:।
महामृत्युंजय मंत्र –
ॐ त्र्यंम्बकं यजामहे
सुगन्धिं पुष्टि वर्धनम् ।
उर्वारुकमिव
बन्धनान्म्त्योर्मुक्षीय याऽमृतात ।।
इस मंत्र का पाठ सवा लाख जप शनि अमावस्या, शनिवार, शनि जयंती या शनि की दशा में
शुरू करने चाहिए। यह मंत्र पूर्ण विधि-विधान से करना चाहिए, जो किसी कर्मकांडी ब्राह्मण से
भी कराया जा सकता है। यह मंत्र प्रतिदिन 10 माला के हिसाब से 125 दिन तक करने से भी शनि ग्रह दोष
शांति होती है।
शनि जयंती पर स्नान कर शनि की लोहे की मूर्ति को तिल को तेल चढ़ाएं। साथ ही
गंध, अक्षत
के साथ खासतौर पर नीले लाजवंती के फूल चढ़ाकर शनि गायत्री मंत्र के अचूक संकटनाशक
मंत्र का यथाशक्ति अधिक से अधिक बार जप करें –
ॐ भगभवाय विद्महे, मृत्युरूपाय धीमहि,
तन्नो सौरी:
प्रचोदयात।।
शनिवार व शनि जयंती के संयोग में विशेष कृष्ण मंत्र बोलना श्रीकृष्ण भक्त शनि
के साथ कालसर्प योग बनाने वाले राहु-केतु की पीड़ा शांति के लिए भी मंगलकारी माना
गया है।
सुबह स्नान के बाद घर में भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा को जल व पंचामृत से
स्नान के बाद केसरयुक्त चंदन, अक्षत, फूल, पीताम्बरी वस्त्र अर्पित कर माखन-मिश्री का भोग लगाएं और
नीचे लिखे दो मंत्रों का विषम संख्या यानी 1, 3, 5, 7, 11, 21 बार जप करें। एक माला
यानी 108
बार जप करें -
कृं कृष्णाय नम||
********
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय||
इन मंत्रों के जप के बाद भगवान श्रीकृष्ण व भगवान विष्णु की आरती करें और
सफलता व यश की कामना करें।
तेल, काले
गंध, काले
अक्षत, काले
फूल व तेल से बने पकवान जैसे पूरी, इमरती का भोग लगाएं और नीचे लिखे इन शनि मंत्रों को स्मरण
करें -
ॐ कोणस्थाय नम:
ॐ रौद्रात्त्मकाय नम:
ॐ शनैश्चराय नम:
ॐ यमाय नम:
ॐ ब्रभवे नम:
ॐ कृष्णाय नम:
ॐ मंदाय नम:
ॐ पिप्पलाय नम:
ॐ पिंगलाय नम:
ॐ सौरये नम:
अंत में शनि पीड़ा से मुक्ति के लिए श्रद्धा से प्रार्थना करें।
शनि जयंती के अवसर पर शनिदेव के निमित्त विधि-विधान से पूजा पाठ तथा व्रत किया
जाता है। शनि जयंती के दिन किया गया दान पुण्य एवं पूजा पाठ शनि संबंधि सभी कष्टों
दूर कर देने में सहायक होता है।
शनि जयंती के दिन सुबह जल्दी स्नान आदि से निवृत्त होकर नवग्रहों को नमस्कार
करते हुए शनिदेव की लोहे की मूर्ति स्थापित करें और उसे सरसों या तिल के तेल से
स्नान कराएं तथा षोड्शोपचार पूजन करें साथ ही शनि मंत्र का उच्चारण करें :-ॐ शनिश्चराय नम: इसके बाद पूजा सामग्री
सहित शनिदेव से संबंधित वस्तुओं का दान करें। इस प्रकार पूजन के बाद दिन भर
निराहार रहें व मंत्र का जप करें। शनि की कृपा एवं शांति प्राप्ति हेतु तिल, उड़द, काली मिर्च, मूंगफली का तेल, आचार, लौंग, तेजपत्ता तथा काले नमक
का उपयोग करना चाहिए, शनि देव को प्रसन्न करने के लिए हनुमान जी की पूजा करनी चाहिए। शनि के लिए
दान में दी जाने वाली वस्तुओं में काले कपड़े, जामुन, काली उडद, काले जूते, तिल, लोहा, तेल, आदि वस्तुओं को शनि के
निमित्त दान में दे सकते हैं|शनि महाराज की पूजा के पश्चात राहु और केतु की पूजा भी करनी चाहिए।
इस दिन शनि भक्तों को पीपल में जल देना चाहिए और पीपल में
सूत्र बांधकर सात बार परिक्रमा करनी चाहिए
No comments:
Post a Comment
We appreciate your comments.