देवता और पितर
गंध तथा रस तृण से तृप्त होते हैं। जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सार तत्व है। स्कंद पुराण
के अनुसार पितरों और देवताओं की योनि एक ऐसी योनि है जो दूर से की गई पूजा ग्रहण कर
लेते हैं और दूर से की गई स्तुति
से भी संतुष्ट हो जाते हैं। अपने पितरों का तिथि अनुसार श्राद्ध करने से पितृ
प्रसन्न होकर अनुष्ठाता की आयु को बढ़ा देते हैं। साथ ही धन धान्य, पुत्र-पौत्र तथा यश प्रदान करते हैं।
महर्षि
याज्ञवल्क्य ने अपनी याज्ञवल्क्य स्मृति में लिखा है
‘आयु: प्रजां, धनं विद्यां
स्वर्गं, मोक्षं
सुखानि च।
प्रयच्छान्ति तथा
राज्यं प्रीता नृणां पितां महा:॥ (याज्ञवल्क्य स्मृति 1/270)
“श्राद्धविवेक”
का कहना है कि
श्राद्धं नाम
वेदबोधित पात्रालम्भनपूर्वक प्रमीत
पित्रादिदेवतोद्देश्यको द्रव्यत्यागविशेष:
||( श्राद्धविवेक )
अर्थात वेदोक्त
पात्रालम्भनपूर्वक पित्रादिकों के उद्देश्य से द्रव्यत्यागात्मक कर्म ही श्राद्ध
है—-
“श्राद्ध चंद्रिका” में कर्म पुराण के माध्यम से वर्णन है कि श्राद्ध से बढ़कर
और कोई कल्याण कर वस्तु है ही नहीं इसलिए समझदार मनुष्य को प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध
का अनुष्ठान करना चाहिए।
“श्राद्धकल्पता”
अनुसार
पित्रयुद्देश्येन
श्रद्दया तयक्तस्य
द्रव्यस्य ब्राह्मणैर्यत्सीकरणं तच्छ्राद्धम ||
अर्थात पितरों के
उद्देश्य से श्रद्धा एवं आस्तिकतापूर्वक पदार्थ-त्याग का दूसरा नाम ही श्राद्ध है.
ब्रह्म पुराण में
कहा गया है कि
‘देशे काले च पात्रे च श्राद्धया विधिना चयेत।
पितृनुद्दश्य
विप्रेभ्यो दत्रं श्राद्धमुद्राहृतम’॥
पितरों को भोज्य
पदार्थो का श्रद्धापूर्वक अर्पण ही श्राद्ध है।
स्कन्द पुराण के
नागर खण्ड में कहा गया है कि श्राद्ध की कोई भी वस्तु व्यर्थ नहीं जाती, अतएव श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।
श्राद्धतत्व में
पुलस्त्य जी कहते हैं कि श्राद्ध में संस्कृत व्यंजनादि पकवानों को दूध, दही, घी आदि के साथ श्राद्धापूर्वक देने के कारण ही इसका नाम श्राद्ध पड़ा,
‘संस्कृत व्यज्नाद्यं च पयोदधिद्यतान्वितम्’ श्राद्धया
दीयते यस्माच्छाद्ध तेन प्रकीर्तितम्’।
” गौडीय
श्राद्धप्रकाश” अनुसार भी
देश-काल-पात्र पितरों के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक हविष्याण,तिल,कुशा तथा जल आदि का त्याग-दान श्राद्ध है—
देशकालपात्रेषु
पित्रयुद्देश्येन हविस्तिलदर्भमन्त्र श्रद्धादिभिर्दानं श्राद्दम||
मत्स्य पुराण में
श्राद्ध का सर्वाधिक उपयुक्त समय दोपहर के बाद 24 मिनट का माना गया है।
श्राद्ध के दौरान
तीन गुण जरूरी हैं,
पहला क्रोध न हो,
दूसरा पवित्रता
बनी रहे,
तीसरा जल्दबाजी न
हो।
श्राद्धकर्ता को
ताम्बूल, तेल मालिश, उपवास, औषधि तथा परान्न भक्षण आदि से वर्जित किया गया है।
श्राद्ध भोजन
ग्रहण करने वाले को भी पुनभरेजन, यात्रा, भार ढोना, दान लेना, हवन करना,
परिश्रम करना और हिंसा आदि से वर्जित किया गया
है।
श्राद्ध में काला
उड़द, तिल, जौ, सांवा, चावल, गेहूं, दुग्ध पदार्थ, मधु, चीनी, कपूर, बेल, आंवला, अंगूर, कटहल, अनार, अखरोट, नारियल, खजूर, नारंगी, बेर, सुपारी, अदरख, जामुन, परवल, गुड़, कमलगट्टा, नींबू, पीपल आदि प्रयोज्य बताए गए हैं।
वृहत्पराशर में
श्राद्ध की अवधि में मांस भक्षण और मैथुन कार्य आदि का निषेध किया गया है।
श्रीमद्भागवत के
अनुसार श्राद्ध के सात्विक अन्न व फलों से पितरों की तृप्ति करनी चाहिए।
शंखस्मृति,
मत्स्य पुराण में कदम्ब, केवड़ा, मौलसिरी, बेलपत्र, करवीर, लाल तथा काले रंग
के सभी फूल एवं उग्र गंध वाले सभी फूल वर्जित किए गए हैं।
इसके साथ ही
श्राद्ध में कमल, मालती, जूही, चम्पा और सभी सुगंधित श्वेत पुष्प तथा तुलसी व भृंगराज प्रयोज्य बताए गए हैं।
श्राद्ध चंद्रिका
में केले के पत्ते का भोजन के उपयोग में वर्जित किया गया है। पत्तल से काम लिया जा
सकता है, परंतु भोजन के सर्वाधिक
उपयुक्त सोने, चांदी, कांसे और तांबे के पात्र बताए गए हैं।
श्राद्ध भोजन
ग्रहण करने वालों के लिए रेशमी वस्त्र, कम्बल, ऊन, काष्ठ, तृण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ
कहे गए हैं। काष्ठ आसनों में भी कदम्ब, जामुन, आम, मौलसिरी एवं वरुण के आसन श्रेष्ठ बताए गए हैं
परंतु इनके निर्माण में लोहे की कोई कील नहीं होनी चाहिए।
जिन आसनों का
श्राद्ध में निषेध किया गया है उनमें पलाश, वट, पीपल, गूलर, महुआ आदि के आसन हैं।
श्राद्ध भोजन
करने वालों में उनकी प्रज्ञा, शील एवं पवित्रता
देखकर उन्हें आमंत्रित करने का विधान है। अपने इष्ट मित्रों तथा गोत्र वालों को
खिलाकर संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए।
श्राद्ध में चोर,
पतित, नास्तिक, मूर्ख, मांस विक्रेता, व्यापारी, नौकर, शुल्क लेकर शिक्षण कार्य करने वाले, अंधे, धूर्त लोगों को नहीं आमंत्रित किया जाना चाहिए (मनुस्मृति, मत्स्य पुराण और वायु पुराण)। श्राद्ध में
तर्पण को दायें हाथ से करना चाहिए। तिल तर्पण खुले हाथ से होना चाहिए। तिल को हाथ,
रोओं में तथा हस्तबुल में नहीं लगे रहना चाहिए।
यह सच है कि
हमारे पितृ यानी पूर्वज श्राद्ध कर्म से संतृप्त होते हैं। अत: श्राद्ध की विधि को
श्रद्धापूर्वक संपन्न किया जाना चाहिए। पक्ष के दौरान यदि निष्ठा के साथ पूर्वजों
को सिर्फ जल भी अर्पित किया जाए, तो सहज ही
प्रसन्न हो जाता हैं।
वैदिक पंरपरा मे
श्राद्ध की विधि में चार कर्म बताए गए हैं :
पिंडदान, हवन, तर्पण और ब्राह्मण भोजन
‘हवन
पिंड दानश्च श्राद्धकाले कृताकृतम’।
इस नियम के
अनुसार यदि संभव हो, तो श्राद्ध में
पिंडदान और हवन किया जा सकता है। यदि संभव न हो तो, पिंडदान भी छोड़ा
जा सकता है। लेकिन दर्पण और ब्राह्मण भोज श्राद्ध का मुख्य अंग हैं। इनके करने से
पूर्वजों को तृप्ति मिलती है। इसलिए इस कर्म को अवश्य करें।
श्राद्ध में एक,
तीन या पांच सदाचारी एवं धार्मिक स्वभाव के
ब्राह्मणों को भोजन कराने का विधान हैं। भोजन कराने के बाद ब्राह्मणों को वस्त्र,
द्रव्य और दक्षिणा देने की परंपरा हैं। अत:
भोजन के बाद ब्राह्मणों को तिलक लगाकर दक्षिणा अवश्य देनी चाहिए, क्योंकि इसके बिना श्राद्ध के उद्धेश्य पूरे
नहीं होते।
फिर श्राद्धकर्ता
को अपने बंधु-बांधवों के साथ श्राद्धान्न का प्रसाद ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार
विधिवत श्राद्ध करने से पितर संतुष्ट होकर धन और वंश की वृद्धि का आर्शीवाद देते
हैं।
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