'सर्व कालकृतं मन्ये'
इस सूत्र के अनुसार सूर्य ' ब्रह्माण्ड ' की
प्राण शक्ति का केंद्र है,
और चन्द्रमा '
ब्रह्माण्ड '
की '
मन: शक्ति का सर्वस्व ' |
इन दोनों ( सूर्य-चन्द्रमा) भौतिक पिंडों की विभिन्न
कक्षाओं में अवस्थिति ही '
तिथि '
शब्द से जानी जाती है, जैसे अमावस्या तिथि को ' चंद्र-पिण्ड' सूर्य
की कक्षा में विलीन रहता है और पूर्णिमा को यह दोनों पिण्ड क्षितिज पर आमने सामने उदित
दिखते हुए समान रेखा पर अवस्थित रहते हैं|
इसी प्रकार दोनों पक्षों की अष्टमी तिथि को ये अर्ध सम रेखा
पर ही अवस्थित रहते हैं| इससे यह सिद्ध होता है कि सूर्य - चंद्र का आन्तरिक तारतम्य ही 'तिथि' है
और स्थूल तथा सूक्ष्म जगत् पर तिथिजन्य प्रभाव का सन्निपात ही तत्तत् तिथियों के अधिष्ठाताओं का उन पर आधिपत्य है , जबकि स्थूल जगत पर भी उक्त पिंडों की अवस्थिति का प्रभाव तत्तत ऋतुओं के रूप में वर्षा, ग्रीष्म, शीत, एवं इनके गुण, आंधी, तूफ़ान, भूकम्प, समुद्रीय ज्वार-भाटा, सुनामी, डीन, रीटा, ओलापात, ज्वालामुखी, बाढ़, मनोरोग, दावानल, और दिग्दाह के रूप में प्रत्यक्ष दिखाई देता है|
और स्थूल तथा सूक्ष्म जगत् पर तिथिजन्य प्रभाव का सन्निपात ही तत्तत् तिथियों के अधिष्ठाताओं का उन पर आधिपत्य है , जबकि स्थूल जगत पर भी उक्त पिंडों की अवस्थिति का प्रभाव तत्तत ऋतुओं के रूप में वर्षा, ग्रीष्म, शीत, एवं इनके गुण, आंधी, तूफ़ान, भूकम्प, समुद्रीय ज्वार-भाटा, सुनामी, डीन, रीटा, ओलापात, ज्वालामुखी, बाढ़, मनोरोग, दावानल, और दिग्दाह के रूप में प्रत्यक्ष दिखाई देता है|
इसके बावजूद सूक्ष्म जगत् ( दृश्य संसार ) पर उनकी अवस्थिति
के प्रभाव को शंका की दृष्टि से देखना पदार्थ विज्ञान से अनभिज्ञ लोगों का ही काम
हो सकता है|
सनातन ( हिंदुओं के ) शास्त्रों में काल (समय) को प्रधान
कारण माना गया है | कोई अनभिज्ञ भले ही 'काल' को
निष्क्रिय मान कर उसकी कारणता में संदेह करे,परन्तु वास्तव 'काल' ही –
"अस्ति, जायते, वर्द्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते
और विनश्यति"
इन छः प्रकार के मूल विकारों का प्रधान / प्रमुख कारण है | 'काल' का
मुख्य उद्भावक 'सूर्य' है और उसके सहकारी उद्भावक अन्य ग्रह-पिण्ड हैं, जिनमें
पृथ्वी के अति निकटवर्ती होने के कारण चंद्र-पिण्ड का 'पार्थिव
निर्माण काल ' में सर्वोपरि सहयोग है |
इसी कारण से सनातनियों (हिन्दुवों) के सभी सकाम ( जो व्रतादि किसी
मनोकामना की पूर्ति आदि के लिए किये जाते हैं वे 'सकाम' , और
जिन व्रतादि में , 'मुझे कोई कामना
नहीं है , मैं तो यूँ ही
कर रहा हूँ उसे 'निष्काम /नि:काम ' व्रत
कहते हैं ) निर्णय चांद्र-तिथियों से करने का स्पष्ट आदेश हमारे
धर्म-शास्त्रों / स्मृतियों में मिलता है |
निष्कर्ष – पंचांग में सर्व साधारण की
सुविधा के लिए वहाँ 'स्मार्त या वैष्णव '
शब्द से उल्लेख किया जाता है| अर्थात जहां
'स्मार्त ' लिखा हो वह व्रतादि ही (गृहस्थों- बाल बच्चेदार ) के करने योग्य होता है, जहां वैष्णव का उल्लेख हो वहाँ दंडी
सन्यासी, मठ-मंदिर, महाभागवत, निम्बार्क,
चक्रांकित महाभागवत,
आश्रम,
सरस्वती,
आदि के करने योग्य होता है|
गृहस्थों
को ' स्मार्त निर्णय ' ही
ग्रहण करना चाहिए |
व्रत और उपवास में भेद:- सनातन धर्म के अनुयायियों के बीच व्रत और उपवास यह दो प्रसिद्ध हैं
१- कायिक ,
२- वाचिक , ३- मानसिक ,
४- नित्य ,
५- नैमित्तिक ,
६- काम्य ,
७- एकभुक्त ,
८- अयाचित ,
९- मितभुक् ,
१० - चान्द्रायण ,
११- प्राजापत्य के रूप में किये जाते हैं |
वास्तव में व्रत और उपवास में केवल यह अंतर है कि, व्रत
में भोजन किया जा सकता है,
किन्तु उपवास में निराहार रहना पडता है|
इनके कायिकादि ३ भेद हैं
१- शस्त्राघात,
मर्माघात,
और कार्य हानि आदिजनित हिंसा के शमन हेतु " कायिक
२- सत्य बोलने और प्राणिमात्र में निर्वैर रहने से "
वाचिक"
३- मन को शांत रखने की दृढता हेतु " मानसिक" व्रत
किया जाता है |
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