संवत्, समय गणना
का मापदंड
है। काल-गति के चक्रवत् होने
के कारण
संवत्सरारम्भ के दिन का निर्णय एक गूढ़ विषय
है। भारतीय
समाज में मुख्य रूप से दो संवत् चल रहे हैं,
प्रथम विक्रम
संवत् तथा दूसरा शक संवत् । विक्रम संवत् ई.
पू. 58-वर्ष ई. पू. प्रारंभ हुआ। इसको
शुरू करने वाले सम्राट विक्रमादित्य थे इसीलिए उनके नाम पर ही इस संवत का नाम है।
राष्ट्रीय
शाके अथवा
शक संवत
भारत का राष्ट्रीय कलैण्डर
है। यह 78 वर्ष ईसा पूर्व प्रारम्भ
हुआ था। चैत्र 1, 1879 शक संवत को
इसे अधिकारिक
रूप से विधिवत अपनाया
गया।
भारतीय
मनीषा ने सभी ऋतुओं
के एक पूरे चक्र
को संवत्सरके नाम से अभिहित
किया है,
अर्थात् किसी
ऋतु से आरम्भ कर पुनः उसी ऋतु की आवृति तक का समय एक संवत्सर
होता है----
‘सर्वर्तुपरिवर्त्तस्तु स्मृतः संवत्सरो बुधैः’(क्षीरस्वामी कृत अमरकोश)।
दूसरे अर्थों
में संवत्सर
के अन्दर
सभी ऋतुओं
का निवास
होता है—
‘संवसन्ति ऋतवः अस्मिन् संवत्सरः’(क्षीरस्वामी कृत अमरकोश,कालवर्ग,20)।
"रितुभिहि संवत्सरः शक्प्नोती स्थातुम "
निरुक्त
ने तो सभी प्राणियों
की आयु की गणना
इन्हीं संवत्सरों
के द्वारा
होने के कारण कहा है कि जिसमें सभी प्राणियों का वास हो,
समय के उस विभाग
को संवत्सर
कहते हैं—
‘संवत्सरः संवसन्ते अस्मिन् भूतानि’(निरुक्त,अ.4,पा.4,खं.27)
चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे अहनि।
शुक्लपक्षे समग्रं तु तदा सूर्योदये सति।।’ (ब्रह्मपुराण)
अर्थात्
ब्रह्माजी ने चैत्रमास के शुक्लपक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय होने
पर संसार
की सृष्टि
की।
संवत्सर के पाँच प्रकार हैं सौर, चंद्र, नक्षत्र, सावन और
अधिमास। विक्रम
संवत में सभी का समावेश है। नववर्ष को
भारत के प्रत्येक प्रांत में अलग-अलग
नामों से जाना जाता है। फिर भी पूरा देश चैत्र माह से ही नववर्ष की शुरुआत मानता
है और इसे नव संवत्सर के रूप में जाना जाता है।
भारत
का सर्वमान्य
संवत विक्रम संवत है, जिसका प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है।
ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि का प्रारंभ
हुआ था| इसलिए
चैत्र शुक्ल
प्रतिपदा तो सारी
सृष्टि का नववर्ष है।
इसी दिन चैत्र
शुक्ल प्रतिपदा
को रेवती
नक्षत्र में विष्कुम्भ योग में दिन के समय भगवान विष्णु
ने मत्स्य
अवतार लिया
था। इस बार वर्ष 2014 में विक्रम संवत
2071 का शुभारम्भ
31 मार्च,
सन् 2014 को
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष,
रेवती नक्षत्र इंद्र
योग में होगा जो अति शुभ है। सूर्य
तथा चन्द्र
मीन राशि
में होंगे।
“कृते च प्रभवे चैत्रे प्रतिपच्छुक्लपक्षगा ।
रेवत्यां योग-विष्कुम्भे दिवा द्वादश-नाड़िका: ।।
मत्स्यरूपकुमार्यांच अवतीर्णो हरि: स्वयम् ।।
इसी दिन से नवरात्र की शुरुआत भी
मानी जाती है। लोक मान्यता
के अनुसार
इसी दिन भगवान राम का और फिर युधिष्ठिर
का राज्यारोहण
किया गया था।
इसी दिन से रात्रि की अपेक्षा दिन बड़ा होने लगता है।
इसी दिन से चैत्री पंचांग का आरम्भ माना जाता है, क्योंकि चैत्र मास की पूर्णिमा का अंत चित्रा
नक्षत्र में होने से इस चैत्र मास को नववर्ष का प्रथम दिन माना जाता है।
और इसी दिन भारत वर्ष में काल गणना प्रारंभ हुई थी। कहा है कि :-
चैत्र मासे जगद्ब्रह्म समग्रे प्रथमेऽनि
शुक्ल पक्षे समग्रे तु सदा सूर्योदये सति। - ब्रह्म पुराण
अर्थात्
ब्रह्माजी ने चैत्रमास के शुक्लपक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय होने
पर संसार
की सृष्टि
की रचना की ।
तैत्तिरीय
ब्राह्मण में ऋतुओं को पक्षी के प्रतीक रूप में प्रस्तुत
किया गया है- वर्ष का सिर वसंत है. दाहिना
पंख ग्रीष्म.
बायां पंख शरद. पूंछ वर्षा और हेमन्त को मध्य भाग कहा गया है.
ऋग्वेद
में युग का कालखंड
पांच वर्ष
माना गया है. इस पांच
साला युग के पहले वर्ष को संवत्सर, दूसरे को परिवत्सर, तीसरे को इदावत्सर, चौथे को अनुवत्सर और पांचवें को इद्वत्सर कहा गया
है. चंद्रकला की वृद्धि और उसके क्षय
के निष्कष्रों
को समय नापने का आधार माना
गया. कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के आधार पर उज्जैन के
राजा विक्रमादित्य ने विक्रम संवत की शुरुआत की
*तैत्तरीय
ब्राह्मण में लिखा है कि अग्नि
=संवत्सर है । एवं -आदित्य {सूर्य
}=परिवत्सर हैं । तथा -चंद्रमा =इदावत्सर
और वायु
=अनुवत्सर है ।
आधुनिक विख्यात संवत शब्द संवत्सर शब्द का अपभ्रंश है । सम +वस्ति +ऋतवः भाव -अच्छी ऋतु जिसमें है ,उस काल गणना के प्रमाण को संवत्सर कहते
हैं । इसलिये जन्म कुंडली की शुरू लेखन में संवत्सर का ही निर्देश होता है । एक
संवत्सर एक वर्ष का माना जाता है ।ज्योतिष के आचार्य गुरु स्थित राशि भोग काल को संवत्सर मानते
हैं क्योंकि
गुरु भी एक राशि
में एक वर्ष निवास
करते हैं । संवत्सर का ज्ञान
बृहस्पति की गति व राशि भोग के आधार
पर होने
के कारण
इसे बृहस्पति वर्ष भी कहा जाता
है।
संवत्सर -कुल साठ -{६०
}हैं । समस्त संवत्सरों
का फलाफल
-उन्नति +अवनति सूर्य की सशक्त गति और काल वैभव पर आधारित है ।
विक्रम
संवत में चैत्र और वैशाख को मधुमास कहा गया है चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा वसंत ऋतु में आती है। वसंत ऋतु
में वृक्ष,
लता फूलों से लदकर आह्लादित होते हैं जिसे
मधुमास भी कहते हैं। इतना ही यह वसंत ऋतु समस्त चराचर को प्रेमाविष्ट करके समूची
धरती को विभिन्न प्रकार के फूलों से अलंकृत कर जन मानस में नववर्ष की उल्लास, उमंग तथा मादकता का संचार करती है।
वास्तव
में संवत्सर
की छः ऋतुएँ उष्णता
और शीतता
के आधार
पर तीन-तीन के दो समूहों
में बँटी
दिखती हैं— वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा उष्णता
प्रधान तथा शरद्, हेमन्त और शिशिर शीत प्रधान हैं।
श्रुतियों ने ‘अग्नीषोमात्मकम् जगत्’ कहकर अग्नि
(उष्ण) और सोम (शीत) को सृष्टि
का प्रधान
कारण माना
है। इन दोनों में शीत जहाँ
प्रकृति का स्वाभाविक रूप है वहीं
उष्णता जीवन
का लक्षण
है। यानि
प्रकृति में उष्णता का संयोग जीवोत्पत्ति
का आधारभूत
कारण है। मृत प्रकृति
को जीवन
(उष्णता) प्रदान करने
के कारण
ही सूर्य
मार्तण्ड कहलाता
है—
‘मृतेण्ड एष एतस्मिन् यदभूत्ततो मार्तण्ड इति व्यपदेशः’(श्रीमद्भागवत)।
जड़वत्
प्रकृति में उष्णता का आरम्भ वसन्त
से होता
है यानि
सर्वांगशीतल प्रकृति
में वसन्तागमन
से प्राप्त
उष्णता के द्वारा जीवन
स्पन्दित हो उठता है। सम्भवतः इसी कारण वसन्त
में ही ब्रहमा द्वारा
सृष्टि की रचना का वर्णन आर्षग्रन्थों
में वर्णित
है।
वसन्त
का पहला
महीना होने
के कारण
प्रकृति चैत्र
के महीने
से जीर्ण-शीर्ण पत्रादिकों
को त्यागकर
नवीन पत्र-पुष्पों के आभरण से सजने लगती
है। जीवन
के आधारभूत
पेड़-पौधों को सोम (औषधि-गुण)
प्रदान करने
वाला चन्द्रमा
शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से अभिवर्धमान होता
है। एक ओर यह दिन चन्द्रमा
की प्रथम
कला के आरम्भ का दिन है तो दूसरी
ओर राशि
चक्र की प्रथम राशि
मेष पर संक्रमण को उत्सुक जड़ प्रकृति में चेतना-प्रवाह का कारक सूर्य
चैत्र शुक्ल
प्रतिपदा के समय उच्चाभिलाषी
रहता है। इसी कारण
भारतीय मनीषा
ने चैत्र
शुक्ल प्रतिपदा
को संवत्सरारम्भ
माना है।
विद्वानों
के अनुसार
कार्तिक शुक्ल नवमी को कृतयुग का आरम्भ हुआ है । वैशाख शुक्ल तृतीया को त्रेतायुग
की प्रसूति हुई है । माघ कृष्ण अमावस्या को द्वापर का सूत्रपात तथा भाद्र कृष्ण
त्रयोदशी को कलियुग की उत्पत्ति हुई है । शब्द मीमांसाशास्त्र के प्रणेता एवं
वेत्ताओं ने "संवत्सर "शब्द को भी युग शब्द का ही पर्यायवाची शब्द
स्वीकार किया है ।
संवत्सर के विषय में एक प्रमुख
बात यह भी है –
कि
उत्तर भारत
में प्रायः चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से विक्रम संवत्सर
का प्रारंभ मानते हैं ,
किन्तु गुजरात एवं महाराष्ट्र आदि दक्षिण प्रान्तों में कार्तिक शुक्ल
प्रतिपदा से विक्रम संवत्सर का प्रारंभ मानते हैं ।
*सिंधु
प्रांत में इसे नव संवत्सर को 'चेटी चंडो'
चैत्र का चंद्र नाम से पुकारा
जाता है जिसे सिंधी
हर्षोल्लास से मनाते हैं
*कश्मीर
में यह पर्व 'नौरोज' के
नाम से मनाया जाता
है }वर्ष प्रतिपदा 'नौरोज' यानी
'नवयूरोज' अर्थात् नया शुभ प्रभात
जिसमें लड़के-लड़कियां नए वस्त्र पहनकर बड़े धूमधाम से मनाते हैं।
हिंदू संस्कृति
के अनुसार
नव संवत्सर
पर कलश स्थापना कर नौ दिन का व्रत
रखकर मां दुर्गा की पूजा प्रारंभ कर नवमीं के दिन हवन कर मां भगवती से सुख-शांति तथा कल्याण की प्रार्थना की जाती है। जिसमें
सभी लोग सात्विक भोजन व्रत उपवास, फलाहार
कर नए भगवा झंडे तोरण द्वार पर बांधकर हर्षोल्लास से मनाते हैं। इन्हीं दिनों
तामसी भोजन,
मांस मदिरा का त्याग भी कर देते हैं।
संवत्सर-चक्र के अनुसार सूर्य इस ऋतु में अपने राशि-चक्र की प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है।
शास्त्रीय मान्यता के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि के दिन प्रात: काल स्नान
आदि के द्वारा शुद्ध
होकर घर को स्वच्छ
सुशोभित करना चाहिए तथा अपने से बड़ों का
गुरु, माता-पिता,
दादा-दादी एवं अन्य पूजनीय व्यक्तियों को प्रणाम कर आशीर्वाद लेना चाहिए। और हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर
ओम भूर्भुव: स्व: संवत्सर- अधिपति आवाहयामि पूजयामि च
इस मंत्र से नव संवत्सर की पूजा करनी चाहिए तत्पश्चात संवत्सर फल का श्रवण करना चाहिए। इसके बाद काली मिर्च, नीम की पत्ती, मिश्री,
अजवाइन व जीरा का चूर्ण बनाकर खाना चाहिए।
इसी
दिन से माँ भगवती राज राजेश्वरी दुर्गा देवी के दिन यानी नवरात्रि प्रारंभ हो जाती
है। अत:
माता की आराधना नौ दिनों तक करनी चाहिए।
इस
दिन से दुर्गा सप्तशती
या रामायण
का नौ-दिवसीय पाठ आरंभ करें।
सभी जीव मात्र तथा प्रकृति के लिए मंगल
कामना करें।
चैत्र
में आने वाले नवरात्र
में अपने
कुल देवी-देवताओं की पूजा का विशेष प्रावधान
माना गया है। मान्यता
है कि नवरात्र में महाशक्ति की पूजा कर श्रीराम ने अपनी खोई हुई शक्ति
पाई, इसलिए इस समय आदिशक्ति
की आराधना
पर विशेष
बल दिया
गया है। मार्कण्डेय पुराण
के अनुसार, दुर्गा
सप्तशती में स्वयं भगवती
ने इस समय शक्ति-पूजा को महापूजा बताया
है।
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