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होलाष्टक: साधना के फलीभूत होने के दिन


हिन्दू पंचांग के अनुसार वर्ष के अंतिम माह फाल्गुन की पूर्णिमा को होली का त्योहार मनाया जाता है। यह हिन्दू धर्म के सबसे प्राचीन उत्सवों में से प्रमुख उत्सव है। इस पर्व का महत्व धर्म ग्रंथों में भी मिलता है। इसलिए इसे वैदिक पर्व भी कहते हैं।
इस पर्व में होलाका नामक अन्न (जिसका संस्कृत भाषा में अर्थ है खेत का आधा कच्चा, आधा पक्का अन्न या भुना हुआ अन्न) से हवन कर प्रसाद लेने की परंपरा थी। संभवत: इसलिए इसका नाम होलिकोत्सव हुआ। श्रीमद्भागवत में भी नई फसल का एक भाग देवताओं को चढ़ाने का महत्व बताया गया है। फाल्गुन माह में आने के कारण इसे फाल्गुनोत्सव भी कहा जाता है।

पुराणों में भी इस पर्व की परंपरा आरंभ होने की कथाएं है। जिनमें होलिका दहन की कथा सबसे लोकप्रिय है। होलिकोत्सव की शुरुआत होलाष्टक से ही हो जाती है। होलाष्टक होली + अष्टक जिसका भावार्थ होता है होली के आठ दिन। होलाष्टक की शुरुआत होलिकादहन के सात दिन पूर्व यानी कि फाल्गुन शुक्लपक्ष अष्टमी से होती है इन आठों दिनों के विषय में कई प्रकार तरह की पौराणिक घटनाओं का वर्णन मिलता है, यह आठ दिन भक्त की परीक्षा और उसकी साधना के परिणाम के लिए जाने जाते हैं। सत्ययुग में महान दैत्य हिरण्यकश्यप ने जब अस्सी हजार वर्ष घोर तपस्या करके भगवान विष्णु से अनेक वरदान प्राप्त करके स्वयं को ईश्वर घोषित कर अत्याचार-दुराचार का मार्ग चुन लिया तो नारायण से अपने भक्त की यह दुर्गति सहन नहीं हुई।
उन्होंने अपने भक्त हिरण्य कश्यप के उद्धार के लिए अपना अंश उनकी पत्नी कयाधू के गर्भ में स्थापित कर दिया, जो जन्म के बाद प्रह्लाद कहलाए। प्रह्लाद जन्म से ही ब्रह्मज्ञानी थे और भगवतभक्ति में लीन रहते थे। उन्हें सभी नौ प्रकार की भक्ति प्राप्त थी, जिनका उन्होंने इस प्रकार वर्णन भी किया है-


श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पाद सेवनम|अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्म निवेदनम|| 


अर्थात श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदनम भक्ति के नौ रूप हैं।
भक्ति मार्ग के इस चरमसोपान को प्राप्त करने के बाद प्राणी परमात्मा को प्राप्त करता है। प्रह्लाद भी इस चरम अवस्था में पहुंच गए थे, जिसका उनके पिता विरोध करते थे। हिरण्य कश्यप के प्रह्लाद को नारायण भक्ति से विमुख करने के सभी उपाय निष्फल होने लगे तो उन्होंने प्रह्लाद को इसी तिथि फाल्गुन शुक्ल पक्ष अष्टमी को बंदी बना लिया और मृत्यु हेतु तरह-तरह की यातनाएं देने लगे, किन्तु प्रह्लाद विचलित नहीं हुए। इस दिन से प्रतिदिन प्रह्लाद को मारने के अनेक उपाय किए जाने लगे, किन्तु भगवतभक्ति में लीन होने के कारण प्रह्लाद हमेशा जीवित बच जाते। इसी प्रकार सात दिन बीत गए।
आठवें दिन भाई हिरण्यकश्यप की परेशानी देखकर उनकी बहन होलिका, जिसे ब्रह्मा द्वारा अग्नि से न जलने का वरदान था, उसने प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में भस्म करने का प्रस्ताव रखा। हिरण्यकश्यप ने इसे स्वीकार कर लिया। लेकिन जैसे ही होलिका भतीजे प्रह्लाद को गोद में लेकर जलती आग में बैठी तो वह स्वयं जलने लगी और प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ। तब से भक्ति पर आघात हो रहे इन आठ दिनों को होलाष्टक के रूप में मनाया जाता है।
भक्त प्रह्लाद की भक्ति पर जिस जिस तिथि-वार को आघात होता था, उस दिन और तिथियों के स्वामी भी क्रोधातुर और उग्र हो जाते थे, इसीलिए इन आठ दिनों में क्रमश: अष्टमी को चंद्रमा, नवमी को सूर्य, दशमी को शनि, एकादशी को शुक्र, द्वादशी को गुरु, त्रयोदशी को बुध एवं चतुर्दशी को मंगल तथा पूर्णिमा को राहु उग्र रूप लिए माने जाते हैं। इस कारण इन दिनों गर्भाधान, विवाह, पुंसवन, नामकरण, चूड़ाकरन, विद्यारम्भ, गृहप्रवेश व निर्माणआदि सोलह संस्कारों और सकाम अनुष्ठान आदि अशुभ माने गए हैं।
तब से फाल्गुन शुक्ल अष्टमी के दिन होलिका दहन के स्थान का चुनाव किया जाता है। इस दिन से लेकर पूर्णिमा होलिका दहन के दिन तक इसमें प्रतिदिन कुछ लकड़ियां डाली जाती हैं। पूर्णिमा तक लकड़ियों का ढेर बन जाता है और पुन: बुराई रूपी होलिका का पूजनोपरांत दहन किया जाता है।

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