वर्ष मासो दिनं लग्नं मुहूर्तश्चेति पन्चकम।
कालस्यागानि मुख्यानि प्रबलान्युत्तरोत्तरम॥
लग्नं दिनभवं हन्ति मुहूर्तः सर्वंदूषणम।
तस्मात शुद्धि मुहूर्तस्य सर्वकार्येषु शस्यते॥
अर्थात मास श्रेष्ठ होने वर्ष का, दिन श्रेष्ठ होने पर मास का, लग्न श्रेष्ठ होने पर दिन का व मुहूर्त श्रेष्ठ होने पर लग्नादि तक सभी का दोष मुक्त हो जाता है।
हिन्दू पंचांग के अनुसार तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं। यह पंचांग का पांचवां अंग है। एक तिथि में दो करण होते
हैं- एक पूर्वार्ध में तथा एक उत्तरार्ध में।
तिथिं च द्विगुणीकृत्य एकहीनं च कारयेत् ।
सप्तभिश्व हरेद्भागं शेषं करणमुच्यते ॥४०॥
ववश्व बालवश्वैव कौलवस्तैतिलस्तथा ।
गरश्र वणिजो विष्टि : सप्तैतानि चराणि च ॥१४॥
कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां शकुनि : पश्विमे दलो
चतुष्यापदश्व नागश्व अमावास्यादलहये ॥४२॥
शुक्लप्रतिपदायास्तु किंस्तुघ्न : प्रथमे दले ।
शुक्लप्रतिपदांते च वबाख्य : करणो भवेत् ॥४३॥
स्थिराण्येतानि चत्वारि करणानि जनुर्घुधा : ।
एकादशैव ज्ञेयानि चरस्थिरविभागत : ॥४४॥
( करणनाम ) वर्तमान तिथि को दूणी करके एक १ , कम करे और सात का भाग देवे शेष बचे सो करण क्रम से जाने ॥४०॥
वव १ , वालव २ , कौलव ३ , तैतिल ४ , गर ५ , वणिज ६ , विष्टि ( भद्र ) ७ , यह सात करण हैं इनकी चर संज्ञा है ॥४१॥
कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के पश्चात् भाग में अर्थात् पीछे की ३० घडियों में शकुनि नाम करण रहता है और अमावस्या के दोनों भाग में चतुष्पाद १ , नाग २ , नाम करण रहता है ॥४२॥
शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के प्रथम भाग में किंस्तुघ्न और द्वितीय भागमें वव करण होता है ॥४३॥
यह चार करण स्थिर संज्ञक हैं और पहले कहे हुए ७ चर संज्ञा वाले मिल के ग्यारह जानना ॥४४॥
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