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राहु काल मान्यता एवम निवारण

राहुकाल समय निर्णय
भारतीय ज्योतिष के अनुसार दिन का समय जब कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता राहुकाल कहलाता है।
राहुकाल सूर्य के उदय के समय अस्त के समय के काल को निश्चित आठ भागों में बांटने से ज्ञात किया जाता है। राहुकाल की मान्यता दिन में ही है रात्रि में नहीं है|
इन आठ भागों में प्रत्येक भाग डेढ घण्टे का होता है। लेकिन कभी भी दिन का सबसे पहला भाग राहुकाल नहीं हो सकता | बाकी के सात भागों में निश्चित समयानुसार राहुकाल होता है| 
रविवार को आठवां भाग (16.30 से18 बजे) सोमवार को दूसरा भाग (7.30 से 9 बजे तक) मंगलवार को सातवां भाग (15 से 15.30बजे तक) बुधवार को पांचवां भाग (12 से 13.30 बजे तक) गुरुवार को छठा भाग (13.30 से 15 बजे तक) शुक्रवार को चौथा भाग (10.30 से 12 बजे तक) तथा शनिवार को तीसरा  भाग (9 से 10.30 बजे तक) राहुकाल होता है ।
यह समय 6 बजे सूर्योदय व सूर्यास्त के मध्य के अन्तर से बताया गया है । दिन छोटे-बड़े तथा स्थानीय अक्षांशों के कारण परिवर्तनीय है । अतः सूक्ष्मगणना पूरे दिनमान के अनुसार करें । यह समय ६ बजे सूर्योदय व सूर्यास्त के मध्य के अन्तर से बताया गया है । दिन छोटे-बड़े तथा स्थानीय अक्षांशों के कारण परिवर्तनीय है । अतः सूक्ष्मगणना पूरे दिनमान के अनुसार करें ।
 यह प्रत्येक सप्ताह के लिये निश्चित रहता है।
सोमवार :
सुबह 7:30 बजे से लेकर प्रात: 9.00 बजे तक.
मंगलवार :
 दोपहर 3:00 बजे से लेकर दोपहर बाद 04:30 बजे तक.
बुधवार :
दोपहर 12:00 बजे से लेकर 01:30 बजे तक.
गुरुवार :
दोपहर 01:30 बजे से लेकर 03:00 बजे तक.
शुक्रवार :
प्रात: 10:30 से 12:00 बजे तक.
शनिवार :
प्रात: 09:00 से 10:30 बजे तक.
रविवार :
 सायं काल में 04:30 बजे से 06:00 बजे तक.
राहुकाल को शुभ कार्यों केलिए व​र्जित माना गया है।
राहुकाल दुर्गापूजा विधानम्
राहुकाल की दक्षिण भारत में विशेष मान्यता है । राहुकाल में आसुरी शक्तियों का उदय होता है अतः अन्य शुभ कार्य नहीं किये जाते हैं । आसुरी शक्तिरयों के दमन हेतु व्यक्ति को जप पाठ एवं स्वाध्याय करना श्रेयस्कर होता है । राहुकाल में दुर्गा उपासना श्रेष्ठ फलदायिनी हैं ।
राहु का शिर एवं केतु का धड़ अलग-अलग है । अतः प्रचण्ड चण्डिका अर्थात् छिन्नमस्ता इस काल की विशेष अधिष्ठात्री देवी है । नवार्ण मन्त्र जप एवं दुर्गा सप्तशती स्तोत्र पाठ सर्व सुगम उपासना है । समर्थ साधक वनदुर्गा, शूलिनी जातवेदा, शाँति, शबरी, ज्वालादुर्गा, लवणदुर्गा, आसुरीदुर्गा एवं दीपदुर्गा की उपासना करते हैं ।
साधना विधि
दुर्गापाठ रविवार को राहुकाल में प्रारम्भ कर अगले सप्ताह सोमवार को प्रातः समाप्त किया जाता है । नवार्ण जप आदि तथा अन्त में अवश्य करें ।
जो साधक नित्य पाठ नहीं कर सकते हैं वे -
प्रथम दिन (रविवार) को संकल्प कर शापोद्धार आदि कर कवच, अर्गला तथा कीलक का पाठ करें । नवार्ण जप कर दुर्गासप्तशती को प्रथमाध्याय के श्लोक सर्वमापोमयं जगततक पाठ करें ।
दूसरे दिन (सोमवार) को प्रथम अध्याय के शेष श्लोक व द्वितीय तथा तृतीय अध्याय के श्लोक तद् वधाय तदाऽकरोत्तक पाठ करें ।
तीसरे दिन (मंगलवार) को तृतीय अध्याय के शेष श्लोक, पूरा चतुर्थ अध्याय तथा पांचवें अध्याय के श्लोक या देवि सर्वभूतेषु जातिरुपेण……” वाले श्लोक तक पाठ करें ।
चतुर्थ दिन (बुधवार) को पांचवें अध्याय के शेष श्लोक तथा छठे अध्याय में श्लोक चकराम्बिका ततःतक पाठ करें ।
पाँचवें दिन (गुरुवार) को छठे अध्याय के शेष श्लोक, पूरा सप्तम अध्याय तथा अष्टम अध्याय का श्लोक ततस्ते हर्षमतुलमवापुस्त्रि त्रिदशाः नृपतक पाठ करें ।
छठे दिन (शुक्रवार) को अष्टम अध्याय के शेष श्लोक, नवम, दशम पूरे अध्याय तथा एकादश अध्याय के श्लोक ज्वालाकराग्र ………….” तक पाठ करें ।
सप्तम दिन (शनिवार) को सप्तशती के शेष पाठ कर रहस्यादि करें । इनके अलावा नित्य कवच, अर्गला, कीलक तथा नवार्ण मंत्र जप १०८ बार आदि अंत में करना श्रेयष्कर रहता है


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