शास्त्रों में उल्लेख है कि श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि (श्रावणी पूर्णिमा) को रक्षाबंधन का
त्योहार श्रवण नक्षत्र में सुबह के दो प्रहर छोड़कर(अपरहण) दोपहर से मनाया जाना चाहिए।
अत्रैव रक्षाबंधनमुक्तं हेमाद्रौ भविष्ये-
सम्प्राप्ते श्रावणस्यान्ते पौर्णमास्यां दिनोदये।
स्नानं कुर्वीत मतिमान् श्रुतिस्मृतिविधानत:।।
उपाकर्मोदिकं प्रोक्तमृषीणां चैव तर्पणम्।
शूद्राणां मन्त्ररहितं स्नानं दानं प्रशस्यते।|
उपाकर्माणि कर्तव्यमृषीणां चैव पूजनम्।
ततोऽपरान्ह समये रक्षापोटलिकां शुभाम्।|
कारयेदक्षतै: शस्तै: सिद्धार्थैर्हेमभूषितै:।
अत्रोपाकर्मानन्तरस्य पूर्णातिथावार्थिकस्यानुवादो न तु विधि:।
गौरवात् प्रयोगविधिभेदेन क्रमायोगाच्छूद्रादौ तदयोगाच्च।
तेन परेद्युरुपाकरणेऽपि पूर्वेद्युरपरान्हे तत्करणं सिद्धम्।
इस बार 10 अगस्त 2014 को पूर्णिमा दिवसपर्यंत और श्रवण नक्षत्र रात्रि 12.09 बजे तक रहेगा। पंचक 11 अगस्त को
लगेगा। भद्रा दोपहर 1.37 बजे तक रहेगी।
निर्णय सिंधु के अनुसार:-
इदं भद्रायां न कार्यम्।
भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा।
श्रावणी नृपतिं हन्ति ग्रामं दहति फाल्गुनी।
इति सङ्ग्रहोक्ते।।
तत्सत्वे तु रात्रावपि तदन्ते कुर्यादिति निर्णयामृते।।
भद्रा मे श्रावणी और फाल्गुनी नही करना चाहिए।
श्रावणी राजा का नाश करती है और फाल्गुनी ग्राम का दहन करती है।
उसके (भद्रां विना चेदपरान्हे तदा परा। तत् सत्त्वे तु रात्रावपीत्यर्थ: ) यानी भद्रा के रहने पर भद्रा मे न करके भद्रा उपरान्त रक्षाबन्धन करें। चाहे रात्रि ही क्यों न हो।
ऐसा निर्णयामृत का वाक्य है।
मान्यता है कि
रावण ने अपनी बहन सूर्पनखा से भद्रा के दौरान राखी बंधवाई थी इसलिए एक साल के भीतर
ही उसका अंत हो गया।
इस बार रक्षाबन्धन का शास्त्रोक्त काल ( अपरहण) भद्रा से सर्वथा मुक्त है|
इस दिन भद्रापुच्छ काल 10.08
से 11.08, भद्रा मुख- 11.08 से 12.48 तथा भद्रा मोक्ष- 1.38 तक रहेगा। अत: रक्षाबंधन का उचित समय दिन में 1.38
से लेकर रात 9.11 तक होगा।
इनमें भी दिन में 1.45
से शाम 4.23
तक का समय विशेष शुभ है।
प्रदोषकाल में रक्षाबंधन मुहूर्त रात 7.01
से 9.11 तक है।
परंतु परिस्थितिवश यदि भद्रा काल में यह
कार्य करना हो तो भद्रा मुख को त्यागकर भद्रा पुच्छ काल में इसे करना चाहिए, इस कारण
से अत्यंत आवश्यक होने पर 10 अगस्त को प्रात: 10:07 से 11:07 तक भद्रा पुच्छ काल में यह कार्य किया जा
सकता है| शास्त्रों के अनुसार में भद्रा के पुच्छ काल में
कार्य करने से कार्यसिद्धि और विजय प्राप्त होती है| परन्तु
भद्रा के पुच्छ काल समय का प्रयोग शुभ कार्यों के के लिये विशेष परिस्थितियों में
ही किया जाना चाहिए|
विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है
कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर
वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का
प्रतीक माना जाता है।
अमरनाथ की यात्रा का शुभारंभ गुरुपूर्णिमा
के दिन होकर रक्षाबंधन के दिन यह यात्रा संपूर्ण होती है। कहते हैं इसी दिन यहाँ
का हिमानी शिवलिंग भी पूरा होता है।
श्रावण मास की पूर्णिमा को प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर बहनें भाइयों की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधतीहैं और भाई बहन एक दूसरे को मिठाई खिलते हैं| इस दिन बहनें अपने भाई के दाहिने हाथ पर रक्षा
सूत्र बांधकर उसकी दीर्घायु की कामना करती हैं| जिसके बदले में भाई उनकी रक्षा का वचन देता है|
उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहते हैं। इस दिन
यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। उत्सर्जन, स्नान-विधि, ॠषि-तर्पणादि करके नवीन
यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। इस दिन ब्राह्मण अपने यजमानों को राखी देकर दक्षिणा
लेते हैं।
महाराष्ट्र में इसे नारियल पूर्णिमा या
श्रावणी के नाम से जाना जाता है| इस दिन लोग नदी या समुद्र के तट पर जाकर अपने
जनेऊ बदलते हैं और समुद्र की पूजा करते हैं। इस अवसर पर समुद्र के स्वामी वरुण
देवता को प्रसन्न करने के लिए नारियल अर्पित करने की परंपरा भी है।
राजस्थान में रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा
बांधने का रिवाज़ है। रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है और केवल भगवान को
बांधी जाती है। इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुंदना लगा होता है चूड़ा राखी भाभियों की चूड़ियों में बाँधी जाती
है।
तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र और उड़ीसा के दक्षिण भारतीय ब्राह्मण इस पर्व को अवनि अवित्तम
कहते हैं। यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणों के लिए यह दिन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस दिन
नदी या समुद्र के तट पर स्नान करने के बाद ऋषियों का तर्णण कर नया यज्ञोपवीत धारण
किया जाता है।
रक्षाबंधन
का मंत्र :
येन बद्धो बलिः राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥
रक्षा बंधन के दिन
सुबह भाई-बहन स्नान करके भगवान की पूजा करते
हैं। इसके बाद रोली, अक्षत, कुंमकुंम
एवं दीप जलकर थाल सजाते हैं। इस थाल में रंग-बिरंगी राखियों
को रखकर उसकी पूजा करते हैं फिर बहनें भाइयों के माथे पर कुंमकुंम, रोली एवं अक्षत से तिलक करती हैं।
इसके बाद भाई
की दाईं कलाई पर रेशम की डोरी से बनी राखी बां धती हैं और मिठाई से भाई का मुंह
मीठा कराती हैं। राखी बंधवाने के बाद भाई बहन को रक्षा का आशीर्वाद एवं उपहार व धन
देता है। बहनें राखी बांधते समय भाई की लम्बी उम्र एवं सुख तथा उन्नति की कामना
करती है।
रक्षाबंधन से
सम्बन्धित इस प्रकार की अनेकों कथाएं हैं।
पहले
रक्षाबन्धन बहन-भाई तक ही सीमित नहीं था, अपितु
आपत्ति आने पर अपनी रक्षा के लिए अथवा किसी की आयु और आरोग्य की वृद्धि के लिये
किसी को भी रक्षा-सूत्र (राखी) बांधा
या भेजा जाता था। भगवान कृष्ण ने गीता में
कहा है कि-
‘मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव’
अर्थात
‘सूत्र’ अविच्छिन्नता का प्रतीक है, क्योंकि
सूत्र (धागा) बिखरे हुए मोतियों को अपने में
पिरोकर एक माला के रूप में एकाकार बनाता है। माला के सूत्र की तरह रक्षा-सूत्र
(राखी) भी लोगों को जोड़ता है।
गीता
में ही लिखा गया है कि जब संसार में नैतिक मूल्यों में कमी आने लगती है, तब ज्योतिर्लिंगम भगवान शिव प्रजापति ब्रह्मा द्वारा
धरती पर पवित्र धागे भेजते हैं, जिन्हें बहनें मंगलकामना करते
हुए भाइयों को बाँधती हैं और भगवान शिव उन्हें नकारात्मक विचारों से दूर रखते हुए
दु:ख और पीड़ा से निजात दिलाते हैं।
भगवान
श्रीकृष्ण ने रक्षा सूत्र के विषय में युधिष्ठिर से कहा था कि रक्षाबंधन का
त्योहार अपनी सेना के साथ मनाओ इससे पाण्डवों एवं उनकी सेना की रक्षा होगी।
श्रीकृष्ण ने यह भी कहा था कि रक्षा सूत्र में अद्भुत शक्ति होती है।
स्कंध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में
रक्षाबंधन का प्रसंग मिलता है। दानवेंद्र राजा बलि का अहंकार चूर करने के लिए
भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया और ब्राह्मण के वेश में राजा बलि से भिक्षा
मांगने पहुंच गए। भगवान ने बलि से भिक्षा में तीन पग भूमि की मांग की। भगवान ने
तीन पग में सारा आकाश, पाताल और धरती नाप लिया और राजा बलि
को रसातल में भेज दिया। बलि ने अपनी भक्ति के बल पर भगवान से रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया। भगवान को वापस लाने के लिए नारद ने
लक्ष्मी जी को एक उपाय बताया। लक्ष्मी जी ने राजा बलि राखी बांध अपना भाई बनाया और
पति को अपने साथ ले आईं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी।
हेमाद्रि ने भविष्योत्तर पुराण का उद्धरण देते हुए
लिखा है कि जब देवों और दानवों के बीच
युद्ध चल रहा था और दानव विजय की ओर अग्रसर थे तो यह देख कर राजा इंद्र बेहद
परेशान थे. दिन-रात उन्हें परेशान
देखकर उनकी पत्नी इंद्राणी (जिन्हें शशिकला भी कहा जाता है)
ने भगवान की अराधना की| उनकी पूजा से प्रसन्न
हो ईश्वर ने उन्हें एक मंत्रसिद्ध धागा दिया. इस धागे को
इंद्राणी ने इंद्र की कलाई पर बांध दिया. इस प्रकार इंद्राणी
ने पति को विजयी कराने में मदद की| इस धागे को रक्षासूत्र का
नाम दिया गया और बाद में यही रक्षा सूत्र रक्षाबंधन हो गया|
जब पूर्णिमा चतुर्दशी या आने वाली प्रतिपदा से युक्त हो तो रक्षा-बन्धन नहीं होना चाहिए। इन दोनों से बचने के लिए रात्रि में ही यह कृत्य
कर लेना चाहिए। यह कृत्य अब भी होता है और पुरोहित लोग दाहिनी कलाई में रक्षा
बाँधते हैं और दक्षिणा प्राप्त
करते हैं। अंजु
आनंद ज्योतिष आचार्या (Astro Windows Researches)
No comments:
Post a Comment
We appreciate your comments.