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Bhadra and its importence in muhurta



भद्रा विष्टि करण
न कुर्यान्मंगलं विष्ट्यां जीवितार्थी कदाचन।
कुर्वन्नज्ञस्तदा क्षिप्रं तत्सर्वं नाशतां व्रजेत्॥
महृषि वशिष्ठ  ने भी कहा कि भद्राकाल में भूलकर भी किसी व्यक्ति को शुभकृत्य करने से बचना चाहिए वरना मंगल कार्य में विघ्र होता है |
संहिता-ग्रंथों में भद्रा को एक आतंक के रूप में दिखाया गया है। पंचांग के पांच प्रमुख अंग - तिथि, वार, योग, नक्षत्र और करण में करण एक महत्वपूर्ण अंग होता है। यह तिथि का आधा भाग होता है। 11 करण  चर और अचर में बांटे गए हैं। चर या गतिशील करण में बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि गिने जाते हैं। अचर या अचलित करण में शकुनि, चतुष्पद, नाग और किंस्तुघ्न होते हैं। इन 11 करणों में सातवें करण विष्टि का नाम ही भद्रा है। यह सदैव गतिशील होती है। पंचाग शुद्धि में भद्रा का खास महत्व होता है।

यूं तो भद्रा का शाब्दिक अर्थ है कल्याण करने वाली लेकिन इस अर्थ के विपरीत भद्रा या विष्टी करण में शुभ कार्य निषेध बताए गए हैं। ज्योतिष विज्ञान के अनुसार अलग-अलग राशियों के अनुसार भद्रा तीनों लोकों में घूमती है। जब यह मृत्युलोक में होती है, तब सभी शुभ कार्यों में बाधक या या उनका नाश करने वाली मानी गई है।
भद्राकी उत्पत्ति और आकृति के विषय में बताया गया है कि जब राक्षसों ने देवताओं को परास्त किया, तब गुस्से में आकर भगवान शिव ने आग उगलती हुई अपनी आंखों से अपने शरीर को देखा |
और ऐसा करते ही उनके  शरीर से लम्बी पुछँ, गर्दभ (गधा) के मुख, शेर के गले, दुबली-पतली कमर, सात हाथ और तीन पैर युक्त काले वर्ण, लंबे केश, बड़े-बड़े दांत तथा भयंकर रूप वाली भद्राउत्पन्न हुई | उसके पैदा होते ही राक्षसों का नाश होने लगा और देवता विजयी हुए और भद्रा को पंचांग में नक्षत्र, योग के  बाद करणमें स्थान दिया गया, जिसका उल्लेख जन्मपत्री’  में भी आता है। परन्तु जन्म लेते ही भद्रा यज्ञों में विघ्न -बाधा पहुंचाने लगी और मंगल-कार्यों में उपद्रव करने लगी तथा सम्पूर्ण जगत को पीड़ा पहुंचाने लगी। उसके दुष्ट स्वभाव को देख कर सूर्य देव को उसके विवाह की चिंता होने लगी और वे सोचने लगे कि इस दुष्टा कुरूपा कन्या का विवाह कैसे होगा|
शास्त्रों एवं स्मृति-पुराणों में भद्राकाल में विवाह, मुंडन, गृहारंभ, गृह प्रवेश, रक्षाबंधन मांगलिक कार्यों का निषेध माना गया है। यूं तो भद्रा का शाब्दिक अर्थ है कल्याण करने वाली लेकिन इस अर्थ के विपरीत भद्रा या विष्टी करण में शुभ कार्य निषेध बताए गए हैं। भद्रा को शुभकृत्यों का विनाशक माना गया है। लेकिन भद्राकाल में शत्रु उच्चाटन, यज्ञ, स्नानादि, अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग, आपरेशन, अदालती मुकदमा, किसी वस्तु को काटना, भैंसघोड़ा, ऊंट संबंधी खरीद-फरोख्त और राजनैतिक चुनाव का कार्य प्रशस्त माने जाते हैं | भद्राकालके दोष का स्पष्ट परिहार भी बताया गया है | यदि अत्यंत आवश्यक हो, तो भूलोक की भद्रा, भद्रामुख, कंठ अथवा हृदयगत भद्रा को छोड़ भद्रापुच्छकाल में शुभ कार्य किये जा सकते हैं।
भविष्य पुराण में भद्रा काल के विषय में बताया है कि
मुख की भद्रा कार्य का नाश करती है जो पांच घड़ी रहती है,
कण्ठ की भद्रा धन का नाश करती है, यह दो घड़ी रहती है,
हृदय की भद्रा प्राण के लिए अशुभ, यह 11 घड़ी रहती है,
नाभि की भद्रा कलहकारी है, यह चार घड़ी रहती है,
कटि की भद्रा अर्थनाश करती है, यह पांच घड़ी रहती है,
पुच्छ की भद्रा निश्चित रूप से विजय एवं कार्यसिद्धि वाली होती है, यह तीन घड़ी रहती है।
भद्राके बारह नाम हैं- 1.धान्या, 2.दधि मुखी, 3. भद्रा, 4. महामारी, 5. खरानना, 6. कालरात्रि, 7. महारुद्रा, 8. विष्टिï, 9. कुलपुत्रिका, 10. भैरवी, 11. महाकाली, 12. असुरक्षयकरी।
कुछ मुहूर्त ग्रंथों में भद्रा दो प्रकार की बतायी है-
1.    सर्पिणी भद्रा,
2.     वृश्चिकी भद्रा,
मतानुसार शुभ कार्यों में सर्पिर्णी भद्राका मुख और वृश्चिकी भद्राकी पुच्छ त्याज्य है।
पंचागानुसार कुछ आवश्यक स्थितियों में भद्रा दोष का परिहार हो जाता है अर्थात तिथि के पूर्वाद्र्ध भाग में प्रारंभ भद्रा, तिथि, दिवस के पूर्वार्ध भाग में प्रारंभ भद्रायादि तिथ्यन्त में रात्रिव्यापिनी हो जाए तो दोषकारक न होकर सुखदायिनी मानी जाती है।
इसी प्रकार पीयूषधाराके अनुसार दिन की भद्रा रात्रि को और रात्रि की भद्रा दिन को आ जाए, ऐसी परिस्थिति में भद्रा दोषरहित हो जाती है।
दिवा पराद्र्धजा विष्टि: पूर्वाद्र्धोत्था निशि,
तदा विष्टिï: शुभायेति कमला सनभाषितम्।।
ज्योतिषीय गणनानुसार भद्राका वास स्वर्ग, पाताल एवं भू-लोक में अलग-अलग चंद्र राशिनुसार अलग-अलग दिन विभिन्न प्रकार से माना गया है।
मेष, वृष, मिथुन, वृश्चिक का चंद्र होने से भद्रावास स्वर्गलोक,
कन्या, तुला, धनु, मकर का चंद्र होने से भद्रा पाताल लोक,
कर्क, सिंह, कुंभ व मीन राशि का चंद्र होने पर भद्रा मृत्युलोक (भू-लोक) में होती है
मृत्युलोक की भद्रा सम्मुख मानी गई है जो अशुभ फलदायिनी एवं वर्जित मानी गई है,
अन्य लोकों में शुभ एवं प्रशस्त होती है ।
भद्रा कालमें यात्रा प्रारंभ करना भी अच्छा नहीं माना गया है | भद्राकाल में केवल उस दिशा की यात्रा प्रारंभ नहीं करनी चाहिए, जिस दिशा में भद्रा का वास हो उसके विपरीत दिशा में यात्रा करना शुभ माना गया है।
रत्नमालाके अनुसार भद्रा
चतुर्दशी को पूर्व,
अष्टïमी को आग्नेय,
सप्तमी को दक्षिण में,
पूर्णिमा को नैऋत्य में,
चतुर्थी को पश्चिम में,
दशमी को वायव्य में,
एकादशी को उत्तर में और
तृतीया को ईशान में वास करती है।
भविष्य पुराण के अनुसार जिस दिन भद्रा हो और परिस्थितिवश शुभ कार्य करना पड़े तो उक्त दिन प्रात: स्नानादि करें, उपवास रखें, पितृ-देव तर्पण के बाद कुमाओं की भद्रा मूर्ति बनाकर धूप, पुष्प, दीप, गंध, नैवेद्य से पूजा करें-भद्रा के द्वादश नामों से 108 आहुतियां देने के उपरांत ब्रह्म भोज करायें, मौन होकर प्रार्थना करते हुए कल्पित भद्रा कुश को लोहे की पतरी पर स्थापित कर काले वस्त्रादि से पूजें-
छाया सूर्य सुते देवि विष्टिरिष्टार्थदायिनी,
पूजितासि यथाशक्त्या भद्रे भद्रप्रदाभव॥

2 comments:

  1. Namaste Anju ji.
    Could you kindly let me know the name of this Hindi book, from which 2 pages have been extracted from and posted in this post.

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  2. Anooj ji
    Namste both these pages are from a book " bhartiya Jyotish" by Nemichand Shashtri.
    Regards

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