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श्रावण माह

वैसे तो प्रत्येक तिथि, वार, नक्षत्र एवं माह अपना विशेष महत्व रखते हैं किन्तु श्रावण माह का अपना अलग ही महत्व है। हिंदू वर्ष में पांचवा माह श्रावण (जुलाई /अगस्त) शिव भक्ति का काल होने से बहुत ही पुण्य काल माना गया है। इस माह में ग्रहों के राजा सूर्यदेव चन्द्रमा की राशि कर्क में विचरण करते हैं। जैसा कि विविध पौराणिक कथाओं से यह बात स्पष्ट है कि चन्द्रमा को 'सुधांशु' भी कहा गया है अर्थात चन्द्रमा अमृतमय है। इसमें अमृत का पुट विद्यमान है। वार प्रवृत्ति के अनुसार सोमवार भी हिमांषु अर्थात चन्द्रमा का ही दिन है।
स्थूल रूप में अभिलक्षणा विधि से भी यदि देखा जाए तो चन्द्रमा की पूजा भी स्वयं भगवान शिव को स्वतः ही प्राप्त हो जाती है क्योंकि चन्द्रमा का निवास भी भुजंग भूषण भगवान शिव की जटाएँ  ही है। अपने कण्ठ में हलाहल एवं सिर पर उग्र ज्वालायुक्त तीसरा नेत्र धारण करने वाले भगवान शिव को जगत कल्याण हेतु अपने सिर पर अमृतमय जलयुक्त गंगा तथा सुधानिधि चन्द्रमा को धारण करना पड़ा है जिससे कण्ठ एवं नेत्र की ज्वाला को ठण्डक प्राप्त हो सके तथा इनकी उग्रता से लोक कल्याण प्रभावित न होने पाए। यही कारण है कि अन्य देवी-देवताओं को घृत, पूरी एवं पकवान आदि की आवश्यकता पड़ती है जबकि भगवान शिव धतूरा, बिल्व आदि पत्र-पुष्प से ही पूजित एवं प्रसन्न होते हैं। उनकी पूजा के लिए किसी पकवान या विशेष वैदिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। मात्र उनका सिर ठण्डा होना चाहिए।
                  सूर्यदेव के चन्द्रमा के शीतल गृह अर्थात कर्क राशि में आते ही समस्त जगत को प्रचण्ड गर्मी से राहत प्राप्त होती है। और प्रसन्न होकर इन्द्रदेव भी जलभरे घुमड़ते बादलों की ठण्डी जल धारा से भगवान शिव का अभिषेक प्रारम्भ कर देते हैं। अगर हम भौगोलिक दृष्टिकोण से भी देखें तो कल्पित कर्क रेखा हिमालय की पूर्वोत्तरवर्ती श्रृंखलाओं से गुजरती है। महामति वराह मिहिर ने अपनी कालजयी रचना बृहत्संहिता के 'नक्षत्र कूर्माध्यायः' में इसका स्पष्ट उल्लेख किया है-

'अथपूर्वस्यामञजनबृषभध्वजपद्ममाल्यवद्गिरयः।
व्याघ्रमुखसुह्मकर्वटचान्द्रपुराःषूर्पकर्णाष्च।
खसमगधषिबिरगिरिमिथिलसमतटोड्राष्ववदनदन्तुरकाः।
प्राग्ज्योतिड्ढलौहित्यक्षीरोदसमुद्रपरुड्ढादाः।
उदयगिरिभद्रगौडकपौण्ड्रोत्कलकाषिमेकलाम्बष्ठाः।
एकपदताम्रलिप्तककोषलका वर्धमानष्च।'

अर्थात् अंजनगिरि, बृषभध्वजगिरि, पद्मगिरि, माल्यवान पर्वत, व्याघ्रमुख, सुह्म, कर्कट (कर्वट), चन्द्रपुर, शूर्पकर्ण देश, खस, मगध, शिविरपर्वत, मिथिला, समतट, उड्र, अष्ववदन, दन्तुरक, प्राग्ज्योतिश, लौहित्य,पुरुषाद प्रदेश, उदयगिरि, भद्र, गौड देश, पौण्ड्र, उत्कल, काशी, मेकल, अम्बष्ठ, एकपद, ताम्रलिप्तक, कोशल वर्धमान प्रदेश आर्दा्रदि तीन नक्षत्रों के वर्गों में पड़ते हैं। अर्थात आर्दा्, पुनर्वसु, पुष्य इन तीन नक्षत्रों के ये प्रदेश हैं। ध्यान रहे इनमें अन्तिम नक्षत्र पुष्य कर्क राशि के वृत्त में पड़ता है। इनमें पूर्वोत्तर भाग के जितने भी प्रान्त या पर्वत हैं वे सब पुष्य नक्षत्र वर्ग के हैं।
हिमाच्छादित पर्वत चोटियों से गुजरते हुए भगवान भुवन भास्कर अपने आतप में न्यूनता समाविष्ट कर देते हैं। ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि भूतभावन भगवान भोलेनाथ का प्रिय निवास स्थान कैलाश पर्वत भी यहीं पर स्थित है जिसकी चोटी पर जाकर भुवन भास्कर भगवान सूर्य भी भगवान शिव की श्रृंखला रूपी जटाओं में विश्राम सा करने लगते हैं। और इसी समय जगत कष्ट विमोचक भवभय हारी कैलाशपति भगवान चन्द्रमौलि लोक कल्याण के लिए तत्पर होते हैं। रौद्र रूप धारी देवाधिदेव महादेव भस्माच्छादित देह वाले भूतभावन भगवान शिव जो तप-जप तथा पूजा आदि से प्रसन्न होकर भस्मासुर को ऐसा वरदान दे सकते हैं कि वह उन्हीं के लिए प्राणघातक बन गया, तो वह प्रसन्न होकर अपने भक्त को  क्या नहीं दे सकते हैं?
ऐसी प्रकृति प्रदत्त अनुकूल वेला में यदि पत्र-पुष्प आदि से भगवान शिव की पूजा की जाए और उससे किसी अक्षय फल की प्राप्ति हो तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।
सांसारिक प्राणियों को इस विष का जरा भी आतप न पहुँचे इसको ध्यान में रखते हुए वे स्वयं बर्फीली चोटियों पर निवास करते हैं। विष की उग्रता को कम करने के लिए साथ में अन्य उपकारार्थ अपने सिर पर शीतल अमृतमयी जल किन्तु उग्रधारा वाली नदी गंगा को धारण कर रखा है।
उस विष की उग्रता को कम करने के लिए अत्यंत ठंडी तासीर वाले हिमांशु अर्थात चन्द्रमा को धारण कर रखा है। और श्रावण मास आते-आते प्रचण्ड रश्मि-पुंज युक्त सूर्य ( वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ में किरणें उग्र आतपयुक्त होती हैं।) को भी अपने आगोश में शीतलता प्रदान करने लगते हैं। भगवान सूर्य और शिव की एकात्मकता का बहुत ही अच्छा निरूपण शिव पुराण की वायवीय संहिता में किया गया है। यथा-

'दिवाकरो महेशस्यमूर्तिर्दीप्त सुमण्डलः।
निर्गुणो गुणसंकीर्णस्तथैव गुणकेवलः।
अविकारात्मकष्चाद्य एकः सामान्यविक्रियः।
असाधारणकर्मा सृष्टिस्थितिलयक्रमात्‌।
एवं त्रिधा चतुर्द्धा विभक्तः पंचधा पुनः।
चतुर्थावरणे षम्भोः पूजिताष्चनुगैः सह।
शिवप्रियः शिवासक्तः शिवपादार्चने रतः।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां मे दिषतु मंगलम्‌।'

अर्थात् भगवान सूर्य महेश्वर की मूर्ति हैं, उनका सुन्दर मण्डल दीप्तिमान है, वे निर्गुण होते हुए भी कल्याण मय गुणों से युक्त हैं, केवल सुणरूप हैं, निर्विकार, सबके आदि कारण और एकमात्र (अद्वितीय) हैं।

यह सामान्य जगत उन्हीं की सृष्टि है, सृष्टि, पालन और संहार के क्रम से उनके कर्म असाधारण हैं, इस तरह वे तीन, चार और पाँच रूपों में विभक्त हैं, भगवान शिव के चौथे आवरण में अनुचरों सहित उनकी पूजा हुई है, वे शिव के प्रिय, शिव में ही आशक्त तथा शिव के चरणारविन्दों की अर्चना में तत्पर हैं, ऐसे सूर्यदेव शिवा और शिव की आज्ञा का सत्कार करके मुझे मंगल प्रदान करें। तो ऐसे महान पावन सूर्य-शिव समागम वाले श्रावण माह में भगवान शिव की अल्प पूजा भी अमोघ पुण्य प्रदान करने वाली है तो इसमें आश्चर्य कैसा?

जैसा कि स्पष्ट है कि भगवान शिव पत्र-पुष्पादि से ही प्रसन्न हो जाते हैं। तो यदि थोड़ी सी विशेष पूजा का सहारा लिया जाए तो अवश्य ही भोलेनाथ की अमोघ कृपा प्राप्त की जा सकती है। शनि की दशान्तर्दशा अथवा साढ़ेसाती से छुटकारा प्राप्त करने के लिए श्रावण मास में शिव पूजन से बढ़कर और कोई श्रेष्ठ उपाय हो ही नहीं सकता है।

ऐसे अनुकूल मुहूर्त की खोज प्राचीन ऋषियों एवं वैदिक आचार्यों ने बहुत सूक्ष्म निरीक्षण एवं गहन परीक्षण तथा श्रमसाध्य अन्वेक्षण के बाद किया होगा। इन्हीं यथार्थवादी साक्षात तथ्यगत प्रमाणों के आधार पर इस परम पावन श्रावण मास को पूजा-पाठ की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण बताया गया है। वैसे तो किसी माह के किसी दिन को शिव की पूजा की जा सकती है। और उसका भी परिणाम शोभन ही होगा परन्तु इस श्रावण माह का पूजन अपना विशेष महत्व रखता है। यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी पूजन महती फलदायी हो सकता है तो ऐसे विशेष पर्व में किया गया पूजन तो अवश्य ही कोटिगुना फल देने वाला होगा।

जनश्रुति एवं प्राचीन पौराणिक कथाओं के अनुसार जब सतीजी राम के वनवास काल में रामचन्द्रजी की परीक्षा लेने के लिए सीताजी का रूप धारण किया था तो भगवान शिव ने सतीजी से विछोह का परम कठोर व्रत धारण कर लिया था। भगवान शिव को पुनः प्राप्त करने के लिए सतीजी ने इसी श्रावण मास में विधि-विधानपूर्वक पूजा करके भगवान शिव को पुनः पति रूप में प्राप्त किया था।

श्रावण मास को मासोत्तम मास कहा जाता है| शास्त्रों में सावन के महात्म्य पर विस्तार पूर्वक उल्लेख मिलता है|
पौराणिक मान्यता के अनुसार सावन महीने को देवों के देव महादेव भगवान शंकर का महीना माना जाता है। इस संबंध में पौराणिक कथा है कि जब सनत कुमारों ने महादेव से उन्हें सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो महादेव भगवान शिव ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था।

अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था के सावन महीने में निराहार रह कर कठोर व्रत किया और उन्हें प्रसन्न कर विवाह किया, जिसके बाद ही महादेव के लिए यह विशेष हो गया।
शास्त्रों मे कहा गया है कि श्रावण माह मे भगवान शिव के कैलास आगमन के कारण शिवभक्त, शिव श्रद्धालु भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिये अनेको तरह के उपाय करते हैं
भगवान नीलकन्ठ की साधना के लिये यह अति महत्वपूर्ण माह माना गया है। शास्त्रों मे यहां तक कहा गया है कि श्रवण मास के सोमवार के व्रतमात्र से ही भगवान आशुतोष प्रसन्न हो जाते हैं और मनचाहा वर देते हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार श्रावण माह में ही समुद्र मंथन किया गया था। मंथन के दौरान समुद्र से निकले विष को भगवान शिव ने अपने कंठ में समाहित कर संपूर्ण सृष्टि की रक्षा की। किन्तु अग्नि के समान दग्ध विषपान के उपरांत महादेव शिव का कंठ नीलवर्ण हो गया। विष की ऊष्णता को शांत कर भगवान भोले को शीतलता प्रदान करने के लिए समस्त देवी-देवताओं ने उन्हें जल-अर्पण किया। इस कारण भगवान शिव की मूर्ति व शिवलिंग पर जल चढ़ाने का महत्व आज भी है तथा शिव पूजा में जल की महत्ता, अनिवार्यता भी सिद्ध होती है। शिवपुराण में कहा गया है कि भगवान शिव ही स्वयं जल हैं।
संजीवनं समस्तस्य जगतः सलिलात्मकम्‌।
भव इत्युच्यते रूपं भवस्य परमात्मनः
अर्थात्‌ जो जल समस्त जगत्‌ के प्राणियों में जीवन का संचार करता है वह जल स्वयं उस परमात्मा शिव का रूप है। इसीलिए जल का अपव्यय नहीं वरन्‌ उसका महत्व समझकर उसकी पूजा करना चाहिए। पूजा में रुद्राक्ष का भी विशेष महत्व है। पुराणों के अनुसार भगवान रूद्र की आँखों से गिरे आँसू से रुद्राक्ष का जन्म हुआ इसलिए रुद्राक्ष भोलेनाथ को अत्यंत प्रिय हैं।
इस मास के प्रत्येक सोमवार को शिवलिंग पर कुछ विशेष वास्तु अर्पित की जाती है जिसे शिवामुट्ठी कहते है। जिसमें
प्रथम सोमवार को कच्चे चावल एक मुट्ठी,
दूसरे सोमवार को सफेद तिल् एक मुट्ठी,
तीसरे सोमवार को खड़े मूँग एक मुट्ठी,
चौथे सोमवार को जौ एक मुट्ठी
और यदि जिस मॉस में पांच सोमवार हो तो
पांचवें सोमवार को सतुआ चढ़ाने जाते हैं और यदि पांच सोमवार न हो तो आखरी सोमवार को दो मुट्ठी भोग अर्पित करते है।
श्रावण माह में एक बिल्वपत्र से शिवार्चन करने से तीन जन्मों के पापों का नाश होता है। एक अखंड बिल्वपत्र अर्पण करने से कोटि बिल्वपत्र चढ़ाने का फल प्राप्त होता है। शिव पूजा में शिवलिंग पर रुद्राक्ष अर्पित करने का भी विशेष फल व महत्त्व है क्यूंकि रुद्राक्ष शिव नयन जल से प्रगट हुआ इसी कारण शिव को अति प्रिय है।
भगवान शिव की पूजा-अर्चना करने के लिए महादेव को कच्चा दूध, सफेद फल, भस्म तथा भाँग, धतूरा, श्वेत वस्त्र अधिक प्रिय है।
देह से कर्म-कर्म से देह-ये ही बंधन है, शिव भक्ति इस बंधन से मुक्ति का साधन है, जीव आत्मा तीन शरीरो से जकड़ी है स्थूल शरीर- कर्म हेतु, सूक्ष्म शरीर- भोग हेतु, कारण शरीर -आत्मा के उपभोग हेतु, लिंग पूजन समस्त बंधन से मुक्ति में परम सहायक है तथा स्वयंभू लिंग की अपनी महिमा है और शास्त्रों में पार्थिव पूजन परम सिद्धि प्रद बताया गया है
अगर खास तरह के शिवलिंग का निर्माण कर रूद्राभिषेक कर लिया जाए तो भोले की कृपा से भक्तों की मनोकामनाएं पूरी होते देर नहीं लगती |
विपत्ति के नाश और मानसिक शांति के लिए 3 अंगुल से लेकर 12 अंगुल के  मिटटी  के  शिवलिंग  की तांबे के पात्र में स्थापना करें| पंचामृत से शिवलिंगका अभिषेक और पूजा करें,
ऊं ह्रौं चं चंद्र मौलेश्वराय सशक्तिकाय नम
 का जाप करें बेलपत्र, पुष्प, फल, फूल, प्रसाद अर्पित करें ऊं नम: शिवाय का मानसिक जाप करें |

पितृ  ग्रह दोषों से मुक्ति पाने के लिए काले पत्थर का 7 अंगुल से लेकर 16 अंगुल तक का शिवलिंग स्थापित करें पंचामृत से शिवलिंग का अभिषेक करें|
 ह्रौं वं महाकालेश्वराय सशक्तिकाय नम:  मंत्र का जाप करें फल, प्रसाद, आक के पत्ते, पुष्प अवश्य अर्पित करें  शिव  हंस: का मानसिक जापकरें |

गृहस्थ एवं दाम्पत्य सुख के लिए संगमरमर का 3 अंगुल से लेकर 11 अंगुल तक शिवलिंग स्थापित कर पंचामृत से अभिषेक करें,  वं चंद्रेश्वरायसशक्तिकाय नम: मंत्र का जाप करें, धूप दीप नैवेद्य भस्म, पुष्प अर्पित करें   रुद्राय नम: का मानसिक जाप करें |

शिक्षा में सफलता के लिए स्फटिक का 5 अंगु ल  से  लेकर  11  अंगुल  तक  का  शिवलिंग  स्थापित कर  ह्रौं वं शिवाय सशक्तिकाय नम: मंत्र का जापकरें चंदन धूप दीप नैवेद्य अर्पित करें   शिवाय नम: का मानसिक जाप करें |

अकाल मृत्यु भय से मुक्ति के लिए चांदी का 3 अंगुल से लेकर 9 अंगुल तक का शिवलिंग स्थापित कर  ह्रौं वं उमा नाथाय सशक्तिकाय नम: मंत्र काजाप करें, धतूरा / धतूरे के फूल, पुष्प अर्पित करें  अवाधूतेशाय नम: का मानसिक जाप करें|

 संपत्ति की प्राप्ति के लिए सोने का 3 अंगुल से लेकर 12 अंगुल तक का शिवलिंग स्थापित कर  ह्रौं वं त्रिलोकीनाथाय सशक्तिकाय नम: मंत्र का जापकरें, भांग के पत्ते, गेंदे का पुष्प फल प्रसाद अर्पित करें ऊं सर्वेश्वराय नम:  का मानसिक जप करें |

मंगलीक और सर्प दोष से मुक्ति के लिए पारे का सवा ग्यारह रत्ती से लेकर 500 ग्राम के बीच का शिवलिंग चांदी के पात्र में  स्थापित  कर   पंपार्देश्वराय सशक्तिकाय नम: मंत्र का जाप करें, केसर, भस्म, शहद, पुष्प अर्पित करें ऊं कौलेश्वराय नम:  का मानसिक जप करें|

भाग्योदय के लिए रत्नों से बना 3 अंगुल से लेकर 16 अंगुल तक का शिवलिंग तांबे के पात्र में स्थापित कर  वं नील कंठाय सशक्तिकाय नम: मंत्र काजाप करें|   भस्म, कस्तूरी, केसर, पुष्प पुष्प अर्पित करें ऊं भैरवाय नम:  का मानसिक जप करें|

मनोकामना पूर्ति के लिए अष्ट धातु से बना 5 अंगुल से लेकर 14 अंगुल तक का शिवलिंग तांबे के पात्र में स्थापित कर  ह्रौं वं नीलकंठायसशक्तिकाय नम: मंत्र का जाप करें और धतूरा, आक, चंदन, भांग, पुष्प अर्पित करें  नदेश्वराय नम: का मानसिक जप करें |



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