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Guru Purnima - Vyas Purnima

भारतीय संस्कृति में गुरु का पद सर्वोच्च माना गया है |
'गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागू पांव,
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताए' - गुरु का पद माता-पिता, बंधु-सखा यहां तक कि ईश्वर से भी ऊंचा कहा गया है ।
गीता के चतुर्थ अध्याय के 34वें श्लोक में प्रभु स्वयं कहते हैं
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः || ३४ || - अध्याय 4 : श्लोक 4 . 34
तत् विभिन्न यज्ञों के उस ज्ञान को; विद्धि जानने का प्रयास करो; प्रणिपातेन गुरु के पास जाकर के; परिप्रश्नेन विनीत जिज्ञासा से; सेवया सेवा के द्वारा; उपदेक्ष्यन्ति दीक्षित करेंगे; ते तुमको; ज्ञानम् ज्ञान में; ज्ञानिनः स्वरुपसिद्ध; तत्त्व तत्त्व के; दर्शिनः दर्शी                                                                    To read in English Click Here
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अर्थात
गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो | उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो | स्वरुपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है |
वर्षा ऋतु के आरंभ से चार महीने ( चातुर्मास ) मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ माने गए हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए यह समय अध्ययन के लिए उपयुक्त माना गया है। जिस प्रकार वर्ष ऋतू के आने से तप्त भूमि को फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है उसी प्रकार गुरुचरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है | परमात्मा से मिलने का मार्ग गुरु ही प्रशस्त करते हैं।इस समय में परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं।
यही कारण है कि आषाढ़ माह की पूर्णिमा को सदियों से गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता रहा है | जिस प्रकार आषाढ़ का मौसम बादलों से घिरा होता है उसमें गुरु अपने ज्ञान रुपी पुंज की चमक से सार्थकता से पूर्ण ज्ञान का आगमन होता है|
धर्म ग्रंथों के अनुसार इस दिन भगवान विष्णु के अवतार वेद व्यासजी का जन्म हुआ था। इन्होंने महाभारत आदि कई महान ग्रंथों की रचना की। कौरव, पाण्डव आदि सभी इन्हें गुरु मानते थे इसलिए आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा व व्यास पूर्णिमा कहा जाता है।

अखंड मंडला कारम व्याप्तं ये चराचरम
तद पदम दर्शितम ये तस्मै श्री गुरुवे नमः
शास्त्रों में बताया गया है
गु यानी अंधकार या मूल अज्ञान
और
रु यानी तेज, प्रकाश या उस मूल अज्ञान का निरोधक।
व्यक्ति के अंतर्मन में व्याप्त अंधकार (अज्ञान) और विकारों को दूर कर प्रकाश का मार्ग प्रशस्त कर परमशांति का ज्ञान प्रदान करने वाला ही वास्तविक 'गुरु' है। शास्त्रों में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समकक्ष स्थापित करते हुए 'गुरुर्ब्रम्हा', 'गुरुर्विष्णु', 'गुरुर्देव महेश्वर' कहा गया है। गुरु अपने शिष्य के अज्ञान का संहार करता है। तब वह रुद्र (शिव का संहारक स्वरूप) का कार्य करता है। वहीं भ्रमादिक ज्ञान को दूर करने के साथ-साथ शिष्य के मन में व्याप्त यथार्थ ज्ञान की रक्षा कर पालनकर्ता के रूप में विष्णु बन जाता है और अज्ञान को हटाते हुए ज्ञान की रक्षा कर नई बातें सिखाता है, तो सृष्टि अथवा ब्रšा का कार्य करने से उसे 'परब्रहृम' की संज्ञा दी गई है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार, आत्मा के आधिपत्य में आचरण एवं 'तत्व' के अर्थ-रूप परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन ही ज्ञान है। वहीं वाल्मीकि रामायण में आचार्य अथवा गुरु द्वारा दर्शाया गया मार्ग ही ज्ञान के रूप में वर्णित है। हम संत-मुनि और दार्शनिकों को गुरु मानते हैं। कठोपनिषद् में माता को ही ज्ञानोपदेशक गुरु कहा गया है। वहीं शंकराचार्य ने भी देव-स्तुति करते हुए कहा है कि गुरु से आकर अभ्युदय का मार्ग दिखाने वाली आदिशक्ति मां ही है।

अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञान्नंजन श्लाक्या 
चक्षु उन्मिलितम ये तस्मै श्री गुरुवे नमः

गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। बिना गुरु के कोई भी व्यक्ति अपने लक्ष्य की प्राप्त नहीं कर सकता।

गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। परमात्मा से मिलने का मार्ग गुरु ही प्रशस्त करते हैं। 
"श्री गुरुभ्यो नमः" 
गुरुपूर्णिमा पर्वणः सर्वेभ्यः हार्दाः शुभकामनाः। 
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