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धन्वंतरि जयंती



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शक संवत अनुसार आश्विन कृष्ण त्रयोदशी तथा विक्रम संवत अनुसार कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी अर्थात `धन त्रयोदशी' । इसी को साधारण बोल चाल की भाषा में `धन तेरस' कहते हैं । देवताओं के वैद्य धन्वंतरि की जयंती का दिन होने के कारण इस दिन विशेष महत्त्व है ।
कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन ही भगवान धन्वंतरि का जन्म हुआ था  इसलिए इस तिथि को धन तेरस अथवा धन त्रयोदशी के नाम से जाना जाता है। धन तेरस से ही दीपोत्सव पर्व की शुरुआत होती है।

यह रोग रहित स्वस्थ जीवन की कामना का पर्व है। निरोग शरीर ही जीवन का सबसे बड़ा धन है। शरीर व्याधियों का घर हो तो धन-धान्य से अंटी पड़ी अटरियां, कोठे सब व्यर्थ हैं। इसी लिए दीपावली के पर्वों की श्रृंखला में इसका प्रथम स्थान है। भागवत पुराण के आख्यान के अनुसार कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी के दिन समुद्र मंथन से देवताओं के वैद्य धन्वंतरि महाराज अमृत कलश के साथ अवतरित हुए थे। इसी की स्मृति में धन्वंतरि-त्रयोदशीका पर्व अस्तित्व में आया | आयुर्वेद के विद्वान् एवं वैद्य मंडली इस दिन भगवान धन्वंतरि की सामूहिक पूजा-अर्चना करते हैं और लोगों के दीर्घ जीवन तथा आरोग्य लाभ के लिए मंगल कामना करते हैं |
इस दिन नीम के पत्तों से बना प्रसाद ग्रहण करने का महत्त्व है। माना जाता है कि, नीम की उत्पत्ति अमृत से हुई है और धन्वंतरि अमृत के दाता हैं । अत: इसके प्रतीक स्वरूप धन्वंतरि जयंती के दिन नीम के पत्तों से बना प्रसाद बांटते हैं ।
भगवान धन्वंतरि प्रथम तथा द्वितीय का वर्णन पुराणों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रंथों में भी छुट-पुट मिलता है। जिसमें आयुर्वेद के आदि ग्रंथों सुश्रुत संहिता चरक संहिता, काश्यप संहिता तथा अष्टांग हृदय में विभिन्न रूपों में उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त अन्य आयुर्वेदिक ग्रंथों भाव प्रकाश, शार्गधर तथा उनके ही समकालीन अन्य ग्रंथों में आयुर्वेदावतरण का प्रसंग उधृत है। इसमें भगवान धन्वंतरि के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है। महाकवि व्यास द्वारा रचित श्री मद भागवत पुराण के अनुसार धन्वंतरि को भगवान विष्णु के अंश माना है तथा अवतारों में अवतार कहा गया है। कश्यप और सुश्रुत संहिताओं में भगवान धन्वंतरि को आदि देव कहा गया है। भूमंडल पर आयुर्वेद के प्रवर्तन, प्रचार और प्रसार के लिए धन्वंतरि ने कई अवतार लिए। इसमें धन्वंतरि, काशी राज और दिवोदास की विशेष चर्चा मिलती है। दिवोदास धन्वंतरि ने शल्य प्रधान अष्टांग आयुर्वेद का प्रवर्तन किया और विश्वामित्र के पुत्र सुश्रुत सहित आठ शिष्यों को इसके प्रसार का दायित्व दिया। कालांतर में धन्वंतरि की एक परंपरा विकसित हो गई थी। योग्य आयुर्वेदाचार्य धन्वंतरि के ही नाम से विख्यात होने लगे। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के नौ रत्नों में जिन धन्वंतरि का प्रमाण मिलता है वह इसी परंपरा के प्रदेय हैं।

महाभारत, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, श्री मद भागवत महापुराणादि में यह उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि देव और असुर एक ही पिता कश्यप ऋषि के संतान थे। किंतु इनकी वंशवृद्ध अधिक हो गई थी अतः अधिकारों के लिए परस्पर लड़ा करते थे। वे तीनों ही लोकों पर राज्याधिकार चाहते थे। असुरों या राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य थे जो संजीवनी विद्या के बल से असुरों का जीवित कर लेते थे। इसके अतिरिक्त दैत्य दानव माँसाहारी होने के कारण हृष्ट-पुष्ट स्वस्थ तथा दिव्य शस्त्रों के ज्ञाता थे। अतः युद्ध में देवताओं की मृत्यु अधिक होती थी।
पुरादेवऽसुरायुद्धेहताश्चशतशोसुराः। 
हेन्यामान्यास्ततो देवाः शतशोऽथसहस्त्रशः।  

गरुड़ और मार्कंडेय पुराणों के अनुसार वेद मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण वे वैद्य कहलाए। भगवान धन्वंतरि आयुर्वेद जगत के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता माने जाते हैं। आदिकाल में आयुर्वेद की उत्पत्ति ब्रह्मा से ही मानते हैं। आदि काल के ग्रंथों में रामायण-महाभारत तथा विविध पुराणों की रचना हुई है, जिसमें सभी ग्रंथों ने आयुर्वेदावतरण के प्रसंग में भगवान धन्वंतरि का उल्लेख किया है।
किंतु तब यह धन्वंतरि महाराज के अमृत-कलश से अनुप्रेरित थी। इसका निहितार्थ अमृत तुल्य स्वास्थ्य संचय के यत्न से जुड़ा था परंतु समय के साथ समाज में उत्तरोत्तर प्रखर होती भौतिकता के दबाव में पात्र-क्रयकी पारंपरिक भावना संपदा संचय की अंध-मानसिकता में बदलती चली गई। उपर्युक्त प्रसंग के अनुसार धन्वंतरि महाराज ने प्रकट होने के उपरांत विष्णु से आग्रह किया था-भगवन्, मेरे निवास और यज्ञों में भाग प्राप्त करने की व्यवस्था दें।
इस पर विष्णु ने असमर्थता प्रकट करते हुए कहा- सौम्य, यज्ञों में भाग प्राप्त करने का अधिकार आवंटित हो चुका है। इस संबंध में अब कुछ नहीं हो सकता। देव पुत्र, तुम्हें द्वितीय जन्म में सार्थकता प्राप्त होगी, तब तुम्हें धरती पर अक्षय यश और देवत्व प्राप्त होगा।तदनुसार अगले जन्म में धन्वंतरि दीर्घतमा के पुत्र काशीराज के रूप में उत्पन्न हुए। इन्हें आयुर्वेद का जनक माना जाता है। हरिवंश पुराण के अवलोकन से एक अलग वंशवृक्ष का पता चलता है। इसमें दीर्घतमा के पुत्र धन्व के पुत्र हैं- धन्वंतरि!

विष्णु पुराण के अनुसार धन्वन्तरि दीर्घतथा के पुत्र बताए गए हैं। इसमें बताया गया है वह धन्वंतरि जरा विकारों से रहित देह और इंद्रियों वाला तथा सभी जन्मों में सर्वशास्त्र ज्ञाता है। भगवान नारायण ने उन्हें पूर्व जन्म में यह वरदान दिया था कि काशिराज के वंश में उत्पन्न होकर आयुर्वेद के आठ भाग करोगे और यज्ञ भाग के भोक्ता बनोगे।

इस प्रकार धन्वंतरि की तीन रूपों में उल्लेख मिलता है।
-समुद्र मन्थन से उत्पन्न धन्वंतरि प्रथम। 
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धन्व के पुत्र धन्वंतरि द्वितीय। 
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काशिराज दिवोदास धन्वंतरि तृतीय।


धन्वंतरि परंपरा के अंतर्गत आयुर्वेद में औषधि विज्ञान के क्षेत्र को इतना व्यापक बनाया गया था कि उस समय कोई ऐसा रोग नहीं था जिसका निदान इस शास्त्र में न रहा हो। प्राचीन काल में यहां ऐसे गुणी और निपुण चिकित्सक थे जिनकी ख्याति देश-देशांतरों में फैली थी। रोम, मिश्र, फारस, यूनान तक के रोगी इनके पास आते थे। आयुर्वेद सिर्फ शारीरिक चिकित्सा का शास्त्र नहीं है बल्कि यह मनोदैहिक स्तर पर आचार-विचार और प्राकृतिक चर्या के माध्यम से स्वास्थ्यपूर्ण जीवन के रहस्यों से जन-जन को परिचित कराता है।

मान्यता है कि भगवान धन्वन्तरी कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही धन तेरस के मौके पर बर्तन, पूजा के लिए धातु की मूर्तियां और आभूषण खरीदने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। पुराने बर्तनों को बदलकर नए खरीदना इस दिन शुभ बताया गया है। धनिया के बीज खरीद कर भी लोग घर में रखते हैं जिन्हें दीपोत्सव के बाद बगीचों अथवा खेतों में बोया जाता है।


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